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उत्तर- उन पर्यायो को जीव स्वय स्वत पर से निरपेक्षतया करता है। कर्म का निमित्त होने पर भी कर्म उन्हे कराता नही हैयह बतलाने के लिये अशुद्धनय का वर्णन इस गाथा मे किया है ।
प्र० ३४८ - मार्गणास्थान किसे कहते है ?
उत्तर - जिन-जिन धर्म विशेषो से जीवो का अन्वेषण (खोज) किया जाता है - उन-उन धर्म को मार्गणा स्थान कहते है ।
प्र० ३४६ - मार्गणा स्थान के कितने भेद हैं
?
उत्तर - चौदह भेद है (१) गति, (२) इन्द्रिय, (३) काय, (४) योग, (५) वेद, (६) कषाय, (७) ज्ञान, (८) सयम, ( 8 ) दर्शन, (१०) लेश्या, (११) भव्यत्व, (१२) सम्यक्त्व, (१३) सज्ञित्व, (१४) आहारत्व |
प्र० ३५० - चौदह मार्गणा किस नय से कही जाती है और किस नय से नही है ?
उत्तर- ये सब निज त्रिकाल शुद्ध आत्मा मे शुद्ध निश्चयनय के से नही है, अपितु अशुद्धनय से कही जाती है ।
प्र० ३५१ - १४ मार्गणाओ मे “गति मार्गणा" बतलाने के पीछे क्या मर्म है ?
उत्तर - (१) नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव नाम की चार गतियाँ है । (२) चारो गतियो सम्बन्धी शरीर भी है । (३) चारो गतियो सम्बन्धी द्रव्यकर्म का उदय निमित्त भी है । (४) चारो गतियो सम्बन्धी भाव भी है । (५) परन्तु निज भगवान का गति रहित अगति स्वभाव है । (६) उसका आश्रय लेकर अन्तरात्मा बनकर क्रम से परमात्मा बने यह मर्म है ।
प्र० ३५२ - ( १ ) आत्मा चार गतियो के शरीर वाला है - ( २ ) आत्मा को चार गति सम्बन्धी द्रव्यकर्म का उदय होता है - यह किस अपेक्षा से कहा जाता है ?
उत्तर- अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है,