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( २२४ ) प्र० ३०३ - कोई कहे हमे 'जलकाय' को 'योनि मे ना जाना पड़े उसका कोई उपाय है ?
उत्तर-छल कपट रहित तेरी आत्मा का स्वभाव है। उसका आश्रय ले तो जलकाय की योनि में नहीं जाना पडेगा, बल्कि मुक्तिरुपी सुन्दरी का नाथ बन जावेगा।
प्र० ३०४-मनुष्य भव व दिगम्बर धर्म होने पर भी क्या यह जीव अग्निकाय कहला सकता है और यह अग्निकाय मे क्यो जाता
उत्तर-जैसे-रोटी बनाने के बाद तवे को उतारते है तो तवे मे टिम-टिम की चिगारियाँ दिखती है। तो लोग कहते है कि तवा हँसता है, परन्तु वह वास्तव मे अग्निकाय के जीव है, उसी प्रकार मनुष्य भव व दिगम्बर धर्म होने पर भी दूसरो को बढता हुआ देखकर ईर्ष्या करता है उस समय वह जीव 'अग्निकाय' ही है, क्योकि "जैसी मति वैसी गति" होती है । (२) यदि उस समय आयु का बन्ध हो गया तो 'अग्निकाय' की योनि में जाना पडेगा जहाँ निरन्तर जलने मे ही जीवन बीतेगा।
प्र० ३०५-कोई कहे अरे भाई हमे 'अग्निकाय' की योनि मे ना जाना पड़े-ऐसा कोई उपाय है ?
उत्तर-ईर्ष्या रहित तेरा त्रिकाली स्वभाव है। उसका आश्रय ले तो अग्निकाय की योनि मे नही जाना पडेगा, बल्कि पर्याय मे तीन लोक का नाथ बन जावेगा।
प्र० ३०६-दिगम्बर धर्म व भनुष्य भव होने पर भी क्या यह जीव 'वायुकाय' कहला सकता है और यह वायुकाय मे क्यो जाता
उत्तर-जैसे हवा के झोके कभी तेज, कभी मन्द चलते रहते है, स्थिर नही रहते है, उसी प्रकार जो मनुष्य भव व दिगम्बर धर्म