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( २०४ ) उतर-(१) व्यवहारनय-मै अमूर्तिक है ऐसा स्वद्रव्य और मै मूर्तिक है-ऐसा परद्रव्य को किसी को किसी में मिलाकर निरुपण करता है। सो मै मूर्तिक है-ऐसे अनुपरित असद्भूत व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिए उसका त्याग करना। (२) निश्चयनय-में अमूर्तिक हूँ ऐसा स्वद्रव्य और मै मूर्तिक हूऐसा परद्रव्य । इस प्रकार निश्चयनय स्वद्रव्य-परद्रव्य का यथावत निरुपण करता है, किसी को किसी मे नही मिलाता है । मैं अमूर्तिक आत्मा हूँ-ऐसे निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना।।
प्र० २०२-आप कहते हो कि मै मूर्तिक हूं-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिये उसका त्याग करना तथा मै अमतिक आत्मा हू ऐसे निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना। यदि ऐसा है तो जिनमार्ग मे दोनो नयो का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे है ? ___ उत्तर-(१) जिनमार्ग मे कही तो मैं अमूर्तिक आत्मा हूँ-ऐसे निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है"-ऐसा जानना । (२) तथा कही मै मूर्तिक है-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है उसे "ऐसे है नही, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है"-ऐसा जानना। (३) मै मूर्तिक नही हूँ, मै अमूर्तिक आत्मा हूँ इस प्रकार जानने का नाम ही निश्चय-व्यवहार दो नयो का ग्रहण है ।
प्र० २०३---कुछ मनीषी ऐसा कहते हैं कि मै मूर्तिक भी हूं और अमूर्तिक आत्मा भी हूं।" इस प्रकार हम निश्चय-व्यवहार दोनो का ग्रहण करते है । क्या उन महानुभावो का ऐसा कहना गलत है ?
उत्तर-हॉ, बिल्कुल गलत है क्योकि ऐसे महानुभावो को जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता ही नही है । तथा उन महानुभावो