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करने का आदेश कही जिनवाणी मे भगवान अमृत चन्द्राचार्य ने दिया है ?
उत्तर- समयसार कलग ९७३ मे आदेश दिया है कि (१) मिथ्यादृष्टि की ऐसी मान्यता है कि निश्चयनय से मै अमूर्तिक है और अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय से मैं मूर्तिक है - यह मिथ्या अध्यवसाय है और ऐसे ऐसे समस्त अध्यवसानो को छोडना, क्योकि मिथ्यादृष्टि को निश्चय व्यवहार कुछ होता हो नही - ऐसा अनादि से जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि मे आया है । ( २ ) स्वय अमृतचन्द्राचार्य कहते है कि मै ऐसा मानता हूँ कि ज्ञानियों को जो मै मूर्तिक हूँ - ऐसा पराश्रित व्यवहार होता है, सो सर्व ही छुड़ाया है। तो फिर सन्त पुरुष स्वयसिद्ध एक परम अमूर्तिक आत्मा को ही अगीकार करके क्यो केवलज्ञानादि प्रगट नही करते है - ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया है ।
प्र० २०० - मै अमूर्तिक हू - ऐसे निश्चयनय को अंगीकार करने और मै मूर्तिक हू- ऐसे अनुपचारित असद्भूत व्यवहारनय के त्याग के विषय में भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने क्या कहा है ?
उत्तर- मोक्ष पाहुड गाथा ३१ मे कहा है कि (१) मै मूर्तिक हैऐसे अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय की श्रद्धा छोडकर मै अमूर्तिक हूँ - ऐसे निश्चयनय की श्रद्धा करता है वह योगी अपने आत्म कार्य मे जागता है । तथा (२) मै मूर्तिक हूँ - ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय मे जागता है वह अपने आत्म कार्य मे सोता है । ( ३ ) इसलिये मे मूर्तिक हूँ - ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर में मूर्तिक हूँ - ऐसे निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है ।
प्र० २०१ - मै मूर्तिक हू - ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर मै अमूर्तिक हू - ऐसे निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ?