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उपचरित असदभूत व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है उसे (१) पुरुषार्थ सिद्धियुयाय श्लोक ६ मे कहा है " तस्य देशना नास्ति" । ( २ ) समयसार कलग ५५ मे कहा है कि "यह उसका अज्ञान मोह अन्धकार है, उसका सुलटना दुर्निवार है" । ( ३ ) प्रवचनासार गाथा ५५ मे कहा है "वह पद-पद पर धोखा खाता है''। (४) आत्मावलोकन मे कहा है ' यह उनका हरामजादीपना है ।
प्र० १८६ - उपयोग अधिकार की गाथा ४ से ६ तक भेदो मे हेय-ज्ञेय लगाकर समझाइये ?
उत्तर - (१) शुद्ध दर्शन ज्ञान त्रिकाली स्वभाव आत्रय करने योग्य परम उपादेय है । ( २ ) कुमति - कुश्रुत - कुअवधि, चक्षु अचक्षु दर्शन आदि हेय है । ( ३ ) साधक दशा के मति श्रुत- अवधि मन पर्ययज्ञान, चक्षु-अचक्षु-अवधि दर्शन एकदेश प्रगट करने योग्य उपादेय है । (४) केवल ज्ञान - केवल दर्शन पूर्ण प्रगट करने योग्य पूर्ण उपादेय है ।
प्रसूतिकत्व अधिकार
वण्ण रस पच गधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे । णो सति श्रमूत्ति तदो व्यवहारा मुत्ति वधा दो ॥ ७ ॥
अर्थ - ( णिच्चया) निश्चयनय से ( जीवे) जीव द्रव्य मे ( वण्ण रस पच) पाच वर्ण, पाच रस (गधा दो) दो गध ( फासा अट्ट) आठ स्पर्श ( णो मति) नही होते है । (तदो ) इसलिये जीव ( अमूत्ति ) अमूर्तिक है । ( व्यवहारा) व्यवहारनय से जीव को (बधा दो) कर्म
बन्धन होने से ( मूत्ति ) मूर्तिक कहा है ।
प्र० १६३ - प्रत्येक जीव का स्वभाव कैसा है ?
उ०- प्रत्येक जीव अनादि अनन्त अवर्ण-अगध- अरस- अस्पर्शअशब्द आदि अनन्त गुणो का पुज है । इसलिये प्रत्येक जीव हर समय अमूर्तिक ही है ।