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( २०० ) प्र० १८६-मै मति-श्रुत चक्षु अचक्ष दर्शन वाला हू-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के बिना मै शुद्ध-ज्ञान दर्शन वाला हूं-ऐसे अभेद निश्चनय का उपदेश कैसे नही होता है ?
उत्तर-शद्ध निश्चयनय से मै रद्ध ज्ञानदर्शन वाला है। उसे जो नही पहचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नही पाये। इसलिये उनको अभेद वस्तु मे भेद उत्पन्न करके मतिश्रुत, चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला जीव है, ऐसे जीव के विशेष किये तब मतिश्रुत चक्षु-अचक्षु वाला जीव है-इत्यादि पर्याय सहित उनको जीव की पहचान हुई । मै मति श्रुत, चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हू-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहार के विना अभेदरुप निश्चय का उपदेश न होना जानना।
प्र० १८७-मै मतिश्रु त, चक्ष -अचक्षु दर्शन वाला हूं-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय को कैसे अगीकार नही करना, सो समझाइये ?
उत्तर-मै शुद्ध ज्ञान-दर्शन अभेद आत्मा मे मतिश्रुत, चक्षु-अचक्षु दर्शन रुप भेद किये, सो उन्हे भेदरुप ही नहीं मान लेना, क्योकि मै मतिश्रुत, चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हू-ऐसा भेद तोसमझानेके अर्थ किये है। निश्चय से आत्मा शुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला अभेद ही है। उसी को जीव वस्तु मानना । सज्ञा-सख्या-लक्षण आदि से भेद कहे सो कथन मात्र ही है। परमार्थ से भिन्न-भिन्न नही है-ऐसा ही श्रद्धान करना । इस प्रकार मै मति-श्रुत, चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हू ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहार अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्र० १८८-मै मतिश्रुत, चक्ष -अचक्ष दर्शन वाला हू-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है। उस जीव को जिनवाणी मे किस-किस नाम से सम्बोधित किया है।
उत्तर-मै मति-श्रुत, चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हू-ऐसे भेदरुप