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योग्य है
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( १६८ )
उत्तर - ( १ ) व्यवहारनय - मै शुद्ध ज्ञान दर्शन वाला हूँ अभेद वस्तु यह स्वद्रव्य का भाव । मै मति श्रुत चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँयह पर द्रव्य का भाव | इस प्रकार व्यवहारनय स्वद्रव्य के भाव और पर द्रव्य के भाव को किसी को किसी मे मिलाकर निरुपण करता है । मैमति श्रुत चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँ-सो ऐसे भेदरूप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिये उसका त्याग करना । (२) निश्चयनय - स्व द्रव्य के भावो को और पर द्रव्य के भावो को यथावत निरुपण करता है, किसी को किसी मे नही मिलाता है । मैं शुद्ध दर्शन - ज्ञान वाला हूँ - ऐसे अभेदरुप निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना ।
प्र० १८३- आप कहते हो मै मतिश्रुत चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हू - ऐसे भेदरूप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिये उसका त्याग करना और मै शुद्ध ज्ञानदर्शन वाला हू - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । परन्तु जिनमार्ग मे भेद - अभेदरूप निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करना कहा है, उसका क्या कारण है
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उत्तर - ( १ ) जिन मार्ग मे मैं शुद्ध ज्ञान - दर्शन वाला हूँ - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो “सत्यार्थ ऐसे ही है" - ऐसा जानना । (२) तथा कही मैं मति श्रुत - चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँ - ऐसे भेदरूप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे "ऐसे है नही, भेदरुप व्यवहारनय का अपेक्षा उपचार किया है" - ऐसा जानना । (३) मै मतिश्रुत चक्षुअचक्षु दर्शन वाला नही हूँ मै तो शुद्ध ज्ञान - दर्शन वाला हूँ । इस प्रकार जानने का नाम ही भेद-अभेदरूप निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण है ।
प्र० १८४ - कुछ मनीषी ऐसा कहते है कि मै मतिश्रुत-चक्षु