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( १९७ ) ___ समस्त अध्यवसानो को छोडना, क्योकि मिथ्यादृष्टि को अभेद
निश्चय और भेद व्यवहार होता ही नही है ऐसा अनादि से जिनेन्द्र
भगवान की दिव्यध्वनि मे आया है। (२) तथा स्वय अमृत । चन्द्राचार्य कहते है कि-मै ऐसा मानता हूँ-ज्ञानियो को उपचरित सद्भुत व्यवहारनय से मै मति श्रुत-चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँ-ऐसा भेदरुप पराश्रित व्यवहार होता है, सो सर्व ही छुडाया है। तो फिर सन्त पुरुप शुद्ध ज्ञान-दर्शन निश्चय को ही अगीकार करके शुद्ध ज्ञान घनरुप निज महिमा मे स्थिति करके क्यो केवलज्ञान-केवल दर्शनादि प्रगट नहीं करते है-ऐसा वाहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया
प्र० १८१-मै शुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला है-ऐसे अभेदरुप निश्चयनय को अंगीकार करने और मै मतिश्रुत-चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हूँ-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के त्याग के विषय मे भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने क्या कहा है ?
उत्तर-(१) मोक्ष प्राभत गाथा ३१ मे कहा है कि-मै मतिश्रुतचक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हूँ ऐसे भेदरुप उपचरित असदभूत व्यवहारनय की श्रद्धान छोडकर मै शुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला हूँ-ऐसे अभेद रुप निश्चयनय की श्रद्धा करता है वह योगी अपने आत्म कार्य मे जागता है । (२) तथा मैं मतिश्रुत-चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हूँ-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय मे जागता हूँ वह अपने आत्म कार्य मे सोता है। (३) इसलिये मै मतिश्रुत-चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हूँऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर मैं शुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला हूँ-ऐसे अभेदरुप निश्चयनय का श्रद्धान करने योग्य है।
प्र० १८२-मै मतिश्रुत-चक्षु-अचक्षु दर्शन वाला हूँ-ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर मै शुद्ध ज्ञानदर्शन वाला हू-ऐसे अभेदरुप निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यों