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( १६५) कुमति-कुश्रुतादि का अभाव करके साधक दशा के मति-श्रुतादि को प्रगट करके क्रम से केवल ज्ञान-केवल दर्शन प्रगट करे यह उपयोग अधिकार की तीन गथाओ का सार है।
प्र० १७४-परमात्मप्रकाश गाथा १०७ मे भेदो के विषय में क्या बताया है ?
उत्तर-मति ज्ञानादि पाँच विकल्प रहित जो 'परमपद' है वह साक्षात मोक्ष का कारण है।
प्र० १७५-समयसार गाथा २०४ में इन भेदो के विषय में क्या बताया है ?
उत्तर-"जिसमे समस्त भेद दूर हुये है ऐसे आत्म स्वभावभूत ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिये। ज्ञान सामान्य के अवलम्बन से ही (१) निजपद की प्राप्ति होती है । (२) भ्रान्ति का नाश होता है। (३) जीव तत्व का लाभ होता है । (४) अनात्मा (अजीव तत्त्व का) का परिहार सिद्ध होता है। (५) द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्म बलवान नही होते है। (६) राग-द्वेष-मोह उत्पन्न नही होते अर्थात् आश्रव उत्पन्न नहीं होता है । (७) राग-द्वेप-मोह बिना पुन कर्मास्रव उत्पन्न नही होता अर्थात् सवर उत्पन्न होता है । (८) कर्म वन्ध नहीं होता अर्थात् बन्ध का अभाव होता है। (६) पूर्व बद्ध कर्म भुक्त होकर निर्जरा को प्राप्त हो जाते है । (१०) फिर समस्त कर्मो का अभाव होने से साक्षात मोक्ष होता है-इसलिए शुद्ध-दर्शन-ज्ञान निज सामान्य स्वभाव को ही परमार्थ कहा है।
प्र० १७६-जो मतिश्रतादि भेदो को जानकर शान्ति मानता है और अपने आत्मा का आश्रय नही लेता है, उसे तत्त्वार्थसूत्र में क्या कहा है ?
उत्तर-'उन्मत्तवत्' कहा है। प्र० १७७-जीव को मतिश्रुतज्ञान और चक्षु-अचक्षु दर्शन होते