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( १७१ ) अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय । प्र० ६८-उपचरित असद्भूत व्यवहारनय किसे कहते है ?
उत्तर-अत्यन्त भिन्न पदार्थों को जो अभेदरुप से ग्रहण करे-उसे उपचरित असद्भुत व्यवहारनय कहते है। जैसे-जीव के महल-घोडावस्त्रादि।
प्र० ६९-अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय किसे कहते है ?
उत्तर-जो नय सयोग सम्बन्ध से युक्त दो पदार्थो के सम्बन्ध को विषय बनावे-उसे अनुपचरित असद्भत व्यवहारनय कहते है। जैसे-जीव का गरीर, जीव का कर्म कहना।।
प्र०.७०-चार प्रकार का अध्यात्म व्यवहार किस प्रकार है ?
उत्तर-(१) उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - साधक ऐसा जानता है कि मेरी पर्याय मे विकार होता है। उसमे जो व्यक्त बुद्धि पूर्वक राग प्रगट ख्याल मे लिया जा सकता है-ऐसे राग को आत्मा का कहना । (२) अनुपचरित प्रसद्भूत व्यवहारनय -जिस समय बुद्धि पूर्वक राग है, उसी समय अपने ख्याल मे न आ सके-ऐसा अबुद्धि पूर्वक राग भी है-उसे जानना । (३) उपचरित सद्भूत व्यवहारनय --ज्ञान पर को जानता है अथवा ज्ञान मे राग ज्ञात होने से "राग का ज्ञान है"-ऐसा कहना । अथवा ज्ञाता स्वभाव के भान पूर्वक ज्ञानी "विकार को भी जानता है" ऐसा कहना । (४) अनुपचरित सदभूत व्यवहारनय -ज्ञान और आत्मा इत्यादि गुणगुणी का भेद करना।
प्र० ७१-चार प्रकार के आगम और अध्यात्म के नयो की जानकारी आवश्यक क्यो है ?
उत्तर-किसः अपेक्षा क्या बात बतलाई जा रही है . जानकारी होने के लिये।
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