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( १५६ ) ग्रहण करने की तीव्र इच्छा रहती है कि अभी मोक्ष मे जाऊ । उसके हृदय पर मोक्षलक्ष्मी का आकार अङ्कित रहता है और इस कारण वह किचित् भी राग परिणति नहीं होने देता है और इस प्रकार विचार करता है "राग परिणति ने मेरे स्वभाव मे थोडा सा भी प्रवेश किया तो मुझे वरण करने को उद्धत मोक्षलक्ष्मी लौट जायेगी,इसलिए मै राग परिणति को दूर से छोडता हूँ।" वह ऐसा विचार करता हुआ अपना काल पूर्ण करता है उसके परिणामा मे निराकुल आनन्दरस रहता है, वह गान्तिरस से अत्यन्त तृप्त रहता है। उसके आत्मिक सुख के अतिरिक्त किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा नहीं है। उसे केवल अतीन्द्रिय सुख की वॉछा है और उसी को भोगना चाहता है इस प्रकार वह स्वाधीन और सुखी हो रहा है।
उसे यद्यपि साधर्मियो का सयोग सुलभ है तो भी उसे उनका सयोग पराधीन होने से आकुलतादायी ही लगता है और वह यह जानता है कि निश्चयत इनका सयोग सुख का कारण नही है। सुख का कारण एक मेरा शुद्धोपयोग ही है जो मेरे पास ही है अत मेरा सुख मेरे आधीन है। सम्यग्दृष्टि इस प्रकार आनन्दमयो हुआ शान्त परिणामो से युक्त समाधिमरण करता है।
प्र० ५०-आपने इस समाधिकरण मे प्रश्न क्यो डाले है ?
उत्तर-स्वय और दूसरे पात्र भव्य जीवो को समझने-समझाने मे कठिनता न हो--इस विचार से प्रश्न डालकर इस समाधिमरण की प्रश्नोत्तरी बना दी है।
एक क्षण भी जी, स्वभाव सन्मुख जी । तू स्वय भगवान है, भगवान बनकर जी ॥ १ ॥ अशुभ कर्म के उदय से, जिनवाणी न सुहाय । कै ऊघे, के लड मरै, के उठ घर को जाये ॥ २ ॥ भाग्य हीन को न मिले, भली वस्तु का योग । दाख पके जब काग के होत कन्ठ मे रोग ॥ ३ ॥