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( १५७ ) प्र० ४५-वह कुटम्ब परिवार के अन्य व्यक्तियो को लाकर उन्हे क्या सम्बोधित करता है ?
उत्तर-"अहो कुटुम्बीगण | अब इस शरीर की आयु तुच्छ रही है। अव हमारा परलोक नजदीक है इसलिये हम आपको कहते है कि आप हमसे किसी बात का राग न करे। आपके और हमारे चार दिन का सयोग था कोई तल्लीनता तो थी नहीं । जैसे सराय मे अलग अलग स्थानो के राही दो रात ठहरे और फिर बिछुड़ते समय वे दुखी हो | इसमे कौन सा सयानापन है। इस प्रकार हमे बिटते समय दु ख नहीं है किन्तु आप सबसे हमारा क्षमाभाव है।
आप सब आनन्दमयी है। यदि आपकी आयु वाकी है तो आप धर्म सहित व राग रहित होकर रहो । अनुक्रम से आप सबकी हमारी सी स्थिति होनी है। इस संसार का ऐसा चरित्र जानकर ऐसा वुधजन कौन है जो इससे प्रीति करे। कुटुम्ब-परिवार वालो को इस प्रकार समझाकर सम्यग्दृष्टि उन्हे सीख देता है ।
प्र० ४६-वह अपने पुत्रो को बुलाकर क्या समझाता है ?
उत्तर-अहो । पुत्रो | आप सब बुद्धिमान है, हमसे किसी प्रकार का मोह नहीं करे। जिनेश्वर देव के धर्म का भली प्रकार पालन करे। आपको धर्म ही सुखकारी होगा। कोई व्यक्ति माता-पिता को सुखका मानता है यह मोहका ही माहात्म्य है । वस्तुत कोई किसी का कर्ता नहीं। कोई किसी का भोक्ता नहीं है सब पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के कर्ता-भोक्ता है इसलिये अब हम आपको पुन समझाते है कि यदि आप व्यवहारत हमारी आज्ञा मानते है तो हम जैसे कहे वैसे करे । “सच्चे देव, धर्म, गुरु की दृढ प्रतीति करो, सामियो से मित्रता करो, पराश्रयकी श्रद्धा छोडो, दान, शील तप सयम से अनुराग कगे, स्व-पर भेदविज्ञान का उपाय करो और ससारी पुरुपो के ससर्ग को छोडो। यह जीव ससार मे सरागी जीवो की सगति से अनादिकाल से ही दुख पाता है इसलिये उनकी सगति अवश्य छोडनी चाहिए। धर्मात्मा पुरुषो की सगति इस लोक और परलोक दोनो मे