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( १५६ ) प्र० ४४---ज्ञानी स्त्री से ममत्त्व कैसे छुड़ाता है ?
उत्तर---तत्पश्चात् सम्यग्दृष्टि स्त्रीसे ममत्व छुडाता है - "अहो। इस शरीरसे ममत्व छोड तेरे और इस शरीर के इतने दिनो का ही सयोग सम्बन्ध था सो अब पूर्ण हो गया। अब इस शरीर से तेरा कुछ भी स्वार्थ नही सधेगा इसलिये तू अव मेरे से मोह छोड और बिना प्रयोजन खेद मतकर । यदि तेरा रखा हुआ यह गीर रहे तो रख, में तो तुझे शेकता नहीं और यदि तेरा रखा यह गीर न रहे तो मैं क्या करू ? यदि तू अच्छी तरह विचार करे तो तुझे ज्ञात होगा कि तू भी आत्मा है और मै भी आत्मा हूँ। स्त्री-पुरुप की पर्याय तो पुद्गल का रूप है अत पौद्गलिक पर्याय से कैसी प्रीति? यह जड और आत्मा चैतन्य, ऊर-बैलका सा इन दोनो का सयोग कैसे बने? तेरी पर्याय है उसे भी चचल ही जान । तू अपने हित का विचार क्यो नहीं करती ? हे स्त्री! मैंने इतने दिन तक तुम्हारे साथ सहवास किया उससे क्या सिद्धि हुई और इन भोगो से क्या सिद्धि होनी है। व्यर्थ ही भोगो से म आत्मा को ससार चक्र मे घुमाते है । भोग करते समय हम मोहवश होकर यह नहीं जानते कि मृत्यु आवेगी और तत्पश्चात् तीन लोककी सम्पदा भी मिथ्या हो जाती है इसलिये तुझे हमारी पर्याय के लिये खेद खिन्न होना उचित नहीं है । यदि तू हमारी प्रिय स्त्री है तो हमे धर्म का उपदेश दे यही तेरा यावृत्य करना है। अब हमारी देह नहीं रहेगी, आयु तुच्छ रह गई है इसलिये तू मोह कर आत्मा को ससार मे क्यो डुबोती है। यह मनुष्य-जन्म दुर्लभ है । यदि तू मतलव ही के लिये हमारी साथिन है तो तू तेरी जाने । हम तुम्हारे डिगाने से डिगेगे नही। हमने तुझे दया कर उपदेश दिया है । तू मानना चाहे तो मान, नहीं माने तो तेरा जैसा होनहार होगा वैसा होगा । हमारा अब तुमसे कुछ भी मतलब नही है इसलिये अब हमसे ममत्व मत कर । हे प्रिये । परिणामो को शान्त रख, आकुल मत हो । यह आंकुलता ही ससार का बीज है। इस प्रकार स्त्री को समझाकर सम्यग्दृष्टि उसे विदा करता है।