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________________ ( XII ) (५३) पचम काल मे जैनकुन्न-जिनेन्द्र की वाणी सुनने को मिले फिर भी अपने को न पहचाने-वह बडा सुभट है। (५४) पचम काल मे पूज्य श्री कानजी स्वामी का योग मिलन एक अचम्भा है। (५५) पूज्य गुन्देव का योग मिलने पर भी ना समझा तो समझ लो अपान है। (५६) शरीर को अपना मानने से कभी भी ससार से मुक्त ना होगा। (५७) शरीर को अपना न माने मुक्त ही है। (५८) परम पारिणामिक का आश्रय कहो आत्मा सन्मुख परिणाम कहो एक ही बात है। (५६) एकमात्र निज आत्मा ही सार है।। (६०) आत्मा का आश्रय लेते ही सारा विश्व भिन्न भासने लगता है। (६१) देहादिक विकल्पित जाल को तू दूर कर दे तो शीघ्र ही निज आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट होवेगा। (६२) ससार का मूल कारण देहादि मे एकत्वपना ही है। वह एकमात्र निज स्वभाव की ओर दृष्टि करने से ही दूर होगा। (६३) धर्म का मूल सम्यग्दर्शन ही है। (६४) स्वरूप मे रमण करना ही चरित्र है। (६५) प्र. -जिन प्रतिमा को जिनेन्द्र सरीखी कौन स्वीकार करता है ? उत्तर जिसकी भवस्थिति अल्प हो गई है, मुक्ति निकट आई है वही जिन प्रतिमा को जिनेन्द्र सरीखी स्वीकार करता है।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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