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प्रगट होते है और पच्चीस दोष होते ही नही हैं तब फिर सम्यक्त्व को आठ अंग सहित और पच्चीस दोषो से रहित का वर्णन क्यो करते हैं ? उत्तर-अण्ट अग अरु दोप पच्चीसो, तिन सक्षेप कहिये।
विन जाने ते दोप गुनन को, कैसे तजिए गहिये ॥११॥ । भावार्थ -सम्यक्त्त्व के आठ अगो और पच्चीस दोनो का सक्षेप मे । वर्णन किया जाता है, क्योकि जाने और समझे विना दोपो को कैसे छोडा जा सकता है तथा गुणो को कैसे ग्रहण किया जा सकता है।
प्र० ६३-आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि को कौन से आठ अंग प्रगट होते है और कौन से दोष उत्पन्न नहीं होते है?
उत्तर-(१) जिन वच मे शका न धार (२) वृष, भव-सुख वाछा भान (३) मुनि-तन मलिन न देख घिनावै (४) तत्त्व-कुतत्त्व पिछाने (५) निज गुण अरु पर औगुण ढाके, वा निज धर्म बढावै । (६) कामादिक कर वृप ते चिगते, निज-पर को सु दिढावै ॥१२॥ धर्मी सो गौ-वच्छ प्रीति सम, (८) कर जिन धर्म दिपावै। इन गुण ते विपरीत दोप वसु, तिनको सतत खिपावै ।।
भावार्थ - [अ] आत्म ज्ञानी जीव के मन मे कभी भी (१) तत्वार्थ श्रद्धान मे शका नही होती और मुक्ति मार्ग साधने मे रत रहते है। (२) चित्त मे दूसरी अन्य कोई वाछा उत्पन्न नही होती है। (३)मुनिजनो के देह की मलिनता देखकर जरा भी ग्लानि नही करते है। (४) तत्त्व और कुतत्त्व के निर्णय मे मूर्ख नही रहते है। (५) अन्तर हृदय मे सर्व जीवो के प्रति विशेष दया रुप कोमल परिणाम रहता है। धर्मात्मा के गुणो को प्रसिद्ध करते है तथा अवगुणो को ढांकते है। (६) धर्मात्मा जीवो को धर्म मे शिथिल होता जाने तो हर सम्भव उपाय के द्वारा उन्हे मोक्षमार्ग मे स्थिर करते है।