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( 1 ) (१७) शुद्धोपयोग चौथे गुणस्थान से प्रगट होता है। (१८) स्वरूपाचरण चारित्र चौये गुणस्थान मे प्रगट हाता है। (१६) पाचवे गुणस्थान मे देशचारित्र प्रगट होता है। (२०) सातवे-छठवे मे सकलचारित्र प्रगट होता है । (२१) बारहवे गुणस्थात मे यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है। (२२) जिसे परणति से प्रेम है उसे अपनी आत्मा से विरोध है। (२३) धर्म का प्रारम्भ शुद्धोपयोग रूप आत्मानुमुति से ही होता
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(२४) आत्मा ज्ञान-दर्शनादि अनन्त गुणो का खजाना है। (२५) सच्ची शान्ति आत्मा का अनुभव होने पर ही होती है। (२६) ज्ञानी को अनुक्लता-प्रतिकलता होती ही नही है । (२७) धर्म अनुभव की वस्तु है।
(२८) आत्मा का अनुभव हुये बिना श्रावक-मुनिपना कभी होता ही नहीं है।
(२६) सर्वज्ञ देव की पहिचान ही आत्मा की पहिचान है। (३०) सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र को तीर्थ कहते है । (३१) वीतरागता का पोषण करे वह जिनवाणी है।
(३२) ज्ञानी को भगवान के दर्शन से अपने केवलज्ञानादि की याद आती है।
(३३) निज आत्मा का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।
(३४) अरहत के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानने वाला अपने आत्मा को पहिचानता है।