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________________ ( ८२ ) में लगता है, फिर भी उसे छोड़कर अन्य मे को अनेक प्रकार की सामग्री मिली, वहाँ वह छोड़कर राग सुनता है, फिर उसे छोड़कर किसी का बुरा करने लग जाता है, उसे छोडकर भोजन करता है अथवा देखने मे ही एक को देखकर अन्य को अनेक कार्यों की प्रवृत्ति मे इच्छा होती है इस का उदय है इसे जगत सुख मानता है, परन्तु ही है । देखता है। इसी प्रकार एक को छोड़कर अन्य लगता है, जैसे किसी किसी को देखता है, उसे इच्छा का नाम पुण्य यह सुख है नहीं, दुख (ऊ) देवादिको को भी सुखी मानते हैं वह भ्रम ही है । उनके चौथी इच्छा की मुख्यता है इसलिए आकुलित है । इस प्रकार जो इच्छा होती है वह मिथ्यात्व अज्ञान असयम से होती है । (ए) जब मिथ्यात्व, अज्ञान, असयम का अभाव हो और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति हो तो इच्छा दूर हो इसलिए इस कार्य का उद्यम करना योग्य है । [ मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ६६ से ७१] (ऐ) आत्मा का भला सुख पाने मे है और सुख उसे कहते है जिसमे आकुलता, चिन्ता, क्लेप ना हो । आकुलता मोक्ष मे नही है, इसलिए मोक्ष मे लगना चाहिए। सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र इन तीनो की एकता ही मोक्ष का मार्ग है उसका कथन दो प्रकार से है । जो यथार्थ निश्चय स्वरूप है वह निश्चय है और निश्चय का निमित्त कारण है वह व्यवहार है । [ छहढाला तीसरी ढाल का पहला काव्य ] १५ परम कल्याण ( अ ) मिथ्यादृष्टि जीव एक-एक समय करके अनादि से मिथ्या -- दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणमित हो रहा है । इसी परिणमन से ससार मे अनेक प्रकार का दुख उत्पन्न करने वाले कर्मों का सम्बन्ध
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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