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( ७५ ) नही है इसलिए अज्ञानी प्राप्त पर्याय मात्र ही अपनी स्थिति मानकर पर्याय सम्बन्धी कार्यों मे ही तत्पर हो रहा है।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४३] (इ) इस लोक मे जो जीवादि पदार्थ हैं वे न्यारे-न्यारे अनादिनिधन हैं।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ११०] (ई) अमूर्तिक प्रदेशो का पुन्ज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो सहित, अनादिनिधन, वस्तु आप है। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३८)
११. संसारी जीवो का सुख के लिये झूठा उपाय (अ) पर युक्त बाधा सहित, खण्डित, बंध कारण विषम छ ।
जे इन्द्रियोंथी लब्ध ते, सुख ये रीते दुख ज खरे ॥७६॥ ___ जो इन्द्रियो से प्राप्त किया सुख है, वह पराधीन है, बाधा सहित है, विनाशीक है, बन्ध का कारण है, विषम है, मो ऐसा सुख इस प्रकार दुख ही है ।
(प्रवचनसार गा० ७६) (आ) नहि मानतो-ये रोते, पुण्ये पाप माँ न विशेष छ।
ते मोहथी आच्छन्न घोर अपार ससारे भमे ॥७७॥
इस प्रकार पुण्य और पाप मे फर्क नहीं है ऐसा जो नही मानता, वह मोहाच्छादित होता हुआ, घोर अपार ससार मे परिभ्रमण करता है (क्योकि पुण्य पाप दोनो आत्मा का धर्म नही और शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार करने वाले हैं।)
(प्रवचनसार गा० ७७) (इ) सूणी घाति कर्म विहीननु, सुख सौ सुख उत्कृष्ट छ ।
श्रद्धे न तेह अभव्य छ, ने भव्य ते सम्मत करे ॥६२॥ टीका मे-इस लोक मे मोहनीय आदि कर्मजाल वालो को स्वभाव प्रतिघात के कारण और आकुलता के कारण 'सुखाभास' होने पर भी 'सुख' कहने की अज्ञानियो की अपरमाथिक रूढि है।
(प्रवचनसार गा० ६२)