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इसलिए बाह्य प्रवृत्ति का कारण परिणाम है ।
प्रश्न १६ - यदि इस प्रकार है तो हम भी विपयादिक का सेवन करेंगे और कहेगे - हमारे उदयाधीन कार्य होते हैं ।
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उत्तर - रे मूर्ख | कुछ कहने से होता नही । सिद्धि तो अभिप्राय के अनुसार है इसलिए जैन शास्त्र के अभ्यास द्वारा अपने अभिप्राय को सम्यक रूप करना । और अन्तरग मे विषयादिक सेवन का अभिप्राय हो तो धर्मार्थी नाम कैसे प्राप्त होगा ? अत धर्मार्थीपन वनता ही नही । इस प्रकार चरणानुयोग के पक्षपाती को इस शास्त्र के अभ्यास मे सन्मुख किया ।
प्रश्न १७ - अब द्रव्यानुयोग का पक्षपाती कहता है कि इस शास्त्र में जीव के गुणस्थानादि रूप विशेष और कर्म के विशेष ( भेद) का वर्णन किया है, किन्तु उनको जानने से तो अनेक विकल्पतरंग उत्पन्न होते हैं और कुछ सिद्धि नहीं है । इसलिये अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करना वा स्व-परका भेदविज्ञान करना, इतना ही कार्यकारी है, अथवा इनके उपदेशक जो अध्यात्मशास्त्र उन्हीं का अभ्यास करना योग्य है ।
उत्तर -- अब उसी को कहते हैं
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हे सूक्ष्माभास । तूने कहा वह सत्य है, किन्तु अपनी अवस्था देखना । जो स्वरूपानुभव मे वा भेदविज्ञान मे उपयोग निरन्तर रहता है तो अन्य विकल्प क्यो करने ? वहाँ ही स्वरूपानन्द सुधारस का स्वादी होकर सतुष्ट होना । किन्तु निचली अवस्था में वहा निरन्तर उपयोग रहता ही नही, उपयोग अनेक अवलम्बो को चाहता है । अत: जिस काल वहा उपयोग न लगे तब गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना । तूने कहा जो अध्यात्मशास्त्र का ही अभ्यास करना युक्त है, किन्तु वहाँ भेदविज्ञान करने के लिये स्व-पर का सामान्यपने स्वरूपनिरूपण है, और विशेष ज्ञान बिना सामान्य का जानना स्पष्ट नही होता । इसलिए जीव और कर्म का विशेष अच्छी तरह जानने से ही स्व-पर का जानना स्पष्ट होता है । उस विशेष जानने के लिये