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उनका धर्मार्थी होकर अभ्यास करता है वह विषयादिक का त्याग करता ही है । उसका तो ज्ञानाभ्यास कार्यकारी ही है ।
२ जो जीव अन्तरग अनुराग से आत्महित के अर्थ शास्त्राभ्यास करता है वह धर्मार्थी है। प्रथम तो जैनशास्त्र ही ऐसे हैं कि जो उनका धर्मार्थी होकर अभ्यास करता है वह विपयादिक का त्याग करता ही है । उसका तो ज्ञानाभ्यास कार्यकारी है ही ।
कदाचित् पूर्व कर्मोदय की प्रबलता से ( अर्थात् कपाय शक्ति की प्रबलता होने से ) न्याय रूप विषयादिक का त्याग न हो तो भी उसके सम्यग्दर्शन ज्ञान होने से ज्ञानाभ्यास कार्यकारी होता है । जिस प्रकार असयत गुण स्थान मे विषयादिक के त्याग बिना भी मोक्षमार्गपना सभव है ।
प्रश्न १५ - जो धर्मार्थी हुआ है, जैन शास्त्र का अभ्यास करता है, उसके विषयादि का त्याग न हो सके ऐसा तो नहीं बनता । विषयादिक का सेवन परिणामो से होता है, परिणाम स्वाधीन है ।
उत्तर - समाधान :- परिणाम ही दो प्रकार है (१) बुद्धिपूर्वक (२) अबुद्धिपूर्वक । अपने अभिप्राय के अनुसार हो वह बुद्धिपूर्वक और देव (कर्म) निमित्त से अपने अभिप्राय से अन्यथा (विरुद्ध) हो वह अबुद्धिपूर्वक | जैसे सामायिक करने मे धर्मात्मा का अभिप्राय तो ऐसा है कि मै मेरे परिणाम शुभ रूप रखूं, वहाँ जो शुभ परिणाम ही हो वह तो बुद्धिपूर्वक, और कर्मोदय से ( कर्मो के उदय मे युक्त होने से) स्वयमेव अशुभ परिणाम होता है वह अबुद्धिपूर्वक जानना । ( यह दृष्टान्त है ) उसी प्रकार धर्मार्थी होकर जो जैन शास्त्र का अभ्यास करता है उसका अभिप्राय तो विषयादिक के त्याग रूप वीतराग भाव की प्राप्ति का ही होता है, वहाँ पर वीतराग भाव हुआ वह बुद्धिपूर्वक है और चारित्र मोह के उदय से (उदय के वश होने पर) सरागभाव ( आशिक च्युति, पराश्रय रूप परिणाम ) होता है वह अबुद्धिपूर्वक है अत स्ववश बिना ( परवश ) जो सरागभाव होता है उसके द्वारा उसको विषयादिक की प्रवृत्ति दिख रही है