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________________ ( ३५ ) प्रधान है । तप के दो प्रकार है - ( १ ) वहिरंग, (२) अन्तरग । जिसके द्वारा शरीर का दमन हो वह बहिरंग तप है । और जिससे मन का दमन होवे, वह अन्तरग तप है । इनमे बहिरग तप से अतरग तप उत्कृष्ट है । उपवासादिक बहिरग तप है, ज्ञानाभ्यास, अन्तरंग तप है । सिद्धान्त मे भी ६ प्रकार के अन्तरग तपो मे चोथा स्वाध्याय नाम का तप कहा है, उससे उत्कृष्ट व्युत्सर्ग और ध्यान ही हैं, इसलिये तप करने मे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है । जीवादिक के विशेषरूप गुणस्थानादिक का स्वरूप जानने से ही अरिहत आदि का स्वरूप भले प्रकार पहिचाने जाते है । अपनी अवस्था पहचानी जाती है, ऐसी पहचान होने पर जो अतरंग मे तीव्र भक्ति प्रकट होती है वही बहुत कार्यकारी है। जो कुलकमादिक से भक्ति होती है वह किचितमात्र ही फल देती है इसलिये भक्ति मे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है । दान चार प्रकार का होता है, उनमे आहारदान, औषधदान अभयदान तो तत्काल क्षुधा के दुखको या रोगके या मरणादिक दुख को दूर करते हैं । और ज्ञानदान वह अनन्तभवसन्तान से चले आ रहे दुख को दूर करने में कारण है। तीर्थंकर, केवली, आचार्यादि के भी ज्ञानदान की प्रवृत्ति है । इससे ज्ञानदान उत्कृष्ट है, इसलिये अपने ज्ञानाभ्यास हो तो अपना भला कर लेता है और अन्य जीवो को भी ज्ञानदान देता है । ज्ञानाभ्यास के बिना ज्ञानदान कैसे हो सकता है ? इसलिये दोनो मे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है । जैसे जन्म से ही कोई पुरुष ठगोके घर जाय वहा वह ठगो को अपना मानता है, कदाचित् कोई पुरुष किसी निमित्त से अपने कुल का और ठगो का यथार्थ ज्ञान करने से ठगो से अन्तरग मे उदासीन हो जाता है । उनको पर जानकर सम्बध छुडाना चाहता है । बाहर मे जैसा निमित्त है वैसी प्रवृत्ति करता है । और कोई पुरुष उन ठगो को अपना ही जानता है, किसी कारण से कोई ठगो से अनुराग करता है और कोई ठगो से लडकर उदासीन 1
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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