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________________ ( ३४ ) ही अभ्यास करो, अपने उपाय मे आलस करना नही । तूने कहा जो प्रथमानुयोग सम्बधी क्यादिक सुनने मे पाप से डर कर धर्मानुरागरूप होता है वह तो वहाँ दोनो कार्य शिथिलता लिये होते हैं । यहाँ पुण्यपाप के कारण कार्यादिक विशेष जानने से वे दोनो कार्य दृढता लिये होते है । अत उनका अभ्यास करना । इस प्रकार प्रथमानुयोग के पक्षपाती का इस शास्त्र के अभ्यास मे सम्मुख किया। प्रश्न १३ - अव चरणानुयोग का पक्षपाती कहता है कि- इस शास्त्र मे कथित जीव फर्म का स्वरूप है वह जैसे है वैसे ही है उनको जानने से क्या सिद्धि होती है ? यदि हिंसादिक का त्याग करके उपवासादि तप किया जाय वा व्रत का पालन किया जाय वा अरिहन्तादिक की पूजा, नाम, स्मरण आदि भक्ति की जाय वा दान दीजिये वा विषय- पायादिक से उदासीन बने इत्यादिक जो शुभ कार्य किया जाय तो आत्महित हो, इसलिये इनका प्ररूपक चरणानुयोग का उपदेशादिक करना । उत्तर - उसको कहते हैं कि हे स्थूल बुद्धि । तूने व्रतादिक शुभ कार्य कहे वह करने योग्य ही हैं किन्तु वे सर्व सम्यक्त्व बिना ऐसे है जैसे अक विना विदी । और जोवादिक का स्वरूप जाने बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा, जैसे वाझा का पुत्र, अत जीवादिक जानने के अर्थ इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना । तूने जिस प्रकार व्रतादिक शुभकार्य कहा, और उससे पुण्य वन्ध होता है । उसी प्रकार जीवादिक जानने रूप ज्ञानाभ्यासा है वह प्रधान शुभ कार्य है | इससे अतिशय पुण्य का वन्ध होता है और उन व्रतादिक मे भी ज्ञानाभ्यास की ही मुख्यता है उसे ही कहते हैं । जो जीव प्रथम जीव समासादि जीवो के विशेष जानकर पश्चात् ज्ञान से हिसादिक का त्यागी बनकर व्रत को धारण करे वही व्रती है। जीवादिकके विशेष को जाने बिना कथचित् हिसादिक के त्याग से आपको व्रती माने तो वह व्रती नही है । इसलिये व्रत पालन मे भी ज्ञानाभ्यास ही
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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