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________________ ( ३० ) प्रश्न ६ - यह सत्य है कि इस कार्य मे विशेष हित होता है, किन्तु बुद्धि की मंदता से कहीं भूल से अन्यथा अर्थ लिखा जाय तो वहाँ महापाप की उत्पत्ति होने से अहित भी होगा ? उत्तर - यथार्थ सर्व पदार्थों के ज्ञाता तो केवली भगवान् हैं, दूसरों को ज्ञानावरण का क्षयोपशमके अनुसार ज्ञान है उसको कोई अर्थ अन्यथा भी प्रतिभास मे आ जाय किन्तु जिनदेवका ऐसा उपदेश है । कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रों के वचन की प्रतीति से वा हठ से, वा क्रोधमान माया लोभ से वा, हास्य, भयादिक से यदि अन्यथा श्रद्धा करे वा उपदेश दे तो वह महापापी है और विशेषज्ञानवान गुरुके निमित्त विना वा अपने विशेष क्षयोपशम विना कोई सूक्ष्म अर्थ अन्यथा प्रतिभासित हो और वह ऐसा जाने कि जिनदेव का उपदेश ऐसे ही है ऐसा जान-कर कोई सूक्ष्म अर्थ की अन्यथा श्रद्धा करे वा उपदेश दे तो उसका महत् पाप नही होता, वही इस ग्रन्थ मे भी आचार्य ने कहा है"सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं तु सद्दहदि सहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ||२७|| जीवकांड | प्रश्न ७ - आपने अपने विशेष ज्ञान से ग्रन्थ का यथार्थ सर्व अर्थ का निर्णय करके टीका करने का प्रारम्भ क्यो न किया ? उत्तर --- कालदोप से केवली - श्रुत केवली का तो यहाँ अभाव ही हुआ, विशेष ज्ञानी भी विरल मिले। जो कोई है वह तो दूर क्षेत्र मे है, उनका सयोग दुर्लभ है और आयु, वुद्धि, वल, पराक्रम आदि तुच्छ रह गये है । इसलिये जितना हो सका वह अर्थ का निर्णय किया, अवशेष जैसे है तैसे प्रमाण हैं । प्रश्न ८ - तुमने कहा वह सत्य है, किन्तु इस ग्रन्थ मे जो भूल होगी उनके शुद्ध होने का कुछ उपाय भी है ? उत्तर - ज्ञानवान् पुरुपो का प्रत्यक्ष सयोग नही है इससे उनको परोक्ष ही ऐसी विनती करता हू कि - में मन्दबुद्धि हू, विशेष ज्ञान रहित हूँ, अविवेकी हूँ, शब्द, न्याय, गणित, धार्मिक आदि ग्रन्थो का
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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