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________________ (281 ) “मुनिदशा को ना समझे (प्रगट ना कर ले) तब तक व्यवहार मार्ग से वीतराग शुद्धोपयोग रूप मुनिदशा को प्रगट करने का उपाय करे। (3) इसलिये निचली दशा मे शिष्य को भी 28 मूलगुणादि मुनिपना है ऐसा व्यवहारनय कार्यकारी है। व्यवहारनय कार्यकारी कब कहा जावेगा ? जब निज ज्ञायक भगवान के आश्रय से पर्याय मे वीतराग - शुद्धोपयोग रूप मुनिदशा प्रगट करे। (4) परन्तु 28 मूलगुणादि रूप मुनिदशा है ऐसे व्यवहार को उपचार मात्र मानकर उसके द्वारा अर्थात् उसका अभाव करके वीतराग शुद्धोपयोग रूप मुनिपने की प्राप्ति हो तब तो कार्यकारी है। (5) परन्तु यदि कोई सकलचारित्र वीतराग भावरूप निश्चय मुनिपने के समान 28 मूलगुणादि प्रवृत्ति रूप व्यवहार मुनिपने को भी सच्चा मानकर "मुनिपना इस प्रकार ही है।" ऐसा श्रद्धान करे तो उल्टा अनर्थकारी हो जावे। (6) यही बात पुरुषार्थ सिद्धियुपाय श्लोक 6-7 मे बतलाया है कि जो झगडाखोर नही है परन्तु जैसा मुनिराज कहते है वैसा ही मानता है ऐसे अज्ञानी को मुनिराज ज्ञानी बनाने के लिए असत्यार्थ जो व्यवहारनय है उसका उपदेश देते है। (7) जो अज्ञानी मूलगुणादि ही मुनिपना है ऐसे व्यवहार का ही पक्ष करता है-ऐसे अज्ञानी को मुनिराज देशना के योग्य नहीं मानते हैं / (8) जैसे कोई जगल मे जा रहा था और उसने कभी सिंह नही देखा था उसे बडी मूछो वाली बिल्ली दिखाकर कहा कि सिंह ऐसा होता है। तब वह पुरुप बडी मूछो वाली बिल्ली को ही सिंह मान ले, उसी प्रकार कोई सकलचारित्र शुद्धिरूप मुनिपने को ना पहिचाने और 28 मूलगुणादि प्रवृत्ति रूप व्यवहार मुनिपने को सच्चा मुनिपना मानले वह भगवान की वाणी सुनने योग्य नही है क्योकि उसने व्यवहार मुनिपने को ही सच्चा मुनिपना मान लिया। प्रश्न 17-"(1) यहाँ कोई निविचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुमार व्यवहार को असत्यार्थ, हेय कहते हो तो हम व्रत-शील-संयमादि व्यवहार कार्य किसलिये करें सबको छोड़ देंगे। (2) उससे कहते हैं कि
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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