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________________ ( १८ ) छुडाया है तो फिर सन्तपुरुष एक परम त्रिकाली ज्ञायक निश्चय ही को अगीकार करके शुद्धज्ञानघनरूप निज महिमा मे स्थिति क्यो नहीं करते ? ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रकट किया है। प्रश्न २०-निश्चयनय को अगीकार करने और व्यवहारनय के त्याग के विषय मे भगवान कुन्द-कुन्द आचार्य ने मोक्षप्राभूत गाथा ३१ मे क्या कहा है ? उत्तर--जो व्यवहार की श्रद्धा छोडता है वह योगी अपने आत्म काय मे जागता है तथा जो व्यवहार मे जागता है वह अपने कार्य में सोता है। इसलिए व्यवहारनय का श्रद्धान छोड कर निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है । यही बात समाधितन्त्र गाथा ७८ मे भगवान पूज्यपाद आचार्य ने बताई है। प्रश्न २१-व्यवहारनय का श्रद्धान छोड़कर निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ? उत्तर-व्यवहारनय (१) स्वद्रव्य, परद्रव्य को (२) तथा उनके भावो को (३) तथा कारण-कार्यादि को, किसी को किसी मे मिला कर निरूपण करता है । सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना चाहिए और निश्चयनय उन्ही का यथावत निरूपण करता है। तथा किसी को किसी मे नही मिलाता और ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। इसलिये उसका श्रद्धान करना चाहिए। प्रश्न २२-आप कहते हो कि व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना और निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना । परन्तु जिनमार्ग के दोनों नयो का ग्रहण करना कहा है। उसका क्या कारण है ? उत्तर-जिनमार्ग मे कही तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो सत्यार्थ ऐसे ही है'-ऐसा जानना तथा कही
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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