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समझना कि धर्मी को शुभभाव होता ही नही, किन्तु वह शुभभाव को धर्म अथवा उससे क्रमश धर्म होगा ऐसा नही मानता, क्योकि अनन्त वीतराग देवो ने उसे बन्ध का कारण कहा है । (५) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ कर नही सकता, उसे परिणमित नही कर सकता, प्रेरणा नही कर सकता, लाभ-हानि नही कर सकता; उस पर प्रभाव नही डाल सकता, उसकी सहायता या उपकार नही कर सकता, उसे मार-जिला नही सकता, ऐसी प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता अनन्त ज्ञानियों ने पुकार-पुकार कर कही है । (६) जिनमत मे तो ऐसा परिपाटी है कि प्रथम सम्यक्त्व और फिर व्रतादि होते है । वह सम्यक्त्व स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है । इसलिए प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि बनना चाहिए। (७) पहले गुणस्थान मे जिज्ञासु जीवो को शास्त्राभ्यास, अध्ययन मनन, ज्ञानी पुरुषो का धर्मोपदेश - श्रवण, निरन्तर उनका समागम, देवदर्शन, पूजा, भक्तिदान आदि शुभभाव होते हैं । किन्तु पहले गुणस्थान मे सच्चे व्रत, तप आदि नही होते हैं ।
प्रश्न १८ - उभयाभासी के दोनो नयो का ग्रहण भी मिथ्या बतला दिया तो वह क्या करे ? ( दोनो नयो को किस प्रकार समझें ? )
उत्तर - निश्चयनय से जो निरुपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और व्यवहारनय से जो नि पण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना ।
प्रश्न १६ - व्यवहारनय का त्याग करके निश्चयनय को श्रंगीकार करने का आदेश कहीं भगवान श्रमृतचन्द्राचार्य ने दिया है ?
उत्तर - हा दिया है । समयसार कलश १७३ मे आदेश दिया है 'कि "सर्व ही हिंसादि व अहिंसादि मे अध्यवसाय है सो समस्त ही छोडना - ऐसा जिनदेवो ने कहा है । अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं किइसलिये में ऐसा मानता हूं कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही
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