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भव करने पर सयुक्तता भूतार्थ है - सत्यार्थ है । उसी समय जो स्वय एकान्त ज्ञायक जीव स्वभाव ( पर के, निमित्त के, भेद से रहित स्वाश्रित रूप से स्थायी ज्ञान स्वभाव ) है उसके ( चैतन्य स्वभाव) के समीप जाकर अनुभव करने सयुक्तता अभूतार्थ है -असत्यार्थ है ।' तात्पर्य यह है कि आत्मा की पर्याय मे मोह राग-द्व ेष होने पर, कर्म का निमित्त होने पर भी आत्मा का परम पारिणामिक भाव एक रूप पडा है उसकी ओर दृष्टि करे तो औदयिक भावो के अभावरूप औप-शमिक भाव तथा धर्म का क्षयोपशमपना प्रगट होकर क्रम से पूर्ण क्षायिकपना प्रगट होता है । ऐसा जानकर अपने पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर क्षायिक दशा प्रगट करना पात्र जीव का परम कर्तव्य है ।
प्रश्न ३२ - क्या पर्याय मे मोह, राग द्वेष होने पर, कर्म का निमित्त होने पर भी औदयिक भावो का अभाव हो सकता है और उसका फल क्या है ?
उत्तर - हाँ, हो सकता है क्योकि पर्याय में मोह राग-द्वेष भाव अभतार्थ है और भगवान आत्मा भूतार्थ है भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने यही बात इस पाँचवें बोल में समझाई है कि तेरी पर्याय मे मोह राग-द्वेष होने पर भी जरा तू अपने परम पारिणामिक भाव की दृष्टि करे तो पूर्ण क्षायिक दशा प्रगट होती है ?
प्रश्न ३३ - पाँच भावो का विशेष खुलासा समझाओ ?
उत्तर -- पांच भावो का विशेष खुलासा के लिए जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला भाग चार मे 'जीव के पांच असाधारण भावो का वर्णन' किया है वहाँ से देखियेगा आपका कल्याण होगा ।
प्रश्न ३४- कलश १० तथा गाथा १४ मे जो आत्मा को अषद्धस्पृष्ट आदि पांच भाव रूप से देखता है। उसे तू शुद्धनय जान, इसको समझाने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - पाँच रूप से नही परन्तु एक रूप से जानता - अनुभवता