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होता है, उसी प्रकार यह जीव उसे अपने आधीन मानता है, उसकी पराधीन क्रिया होती है इससे वह महा खेद खिन्न होता है।
[आ] (१) जैसे-जहाँ वह पागल ठहरा था वहाँ अन्य स्थान से आकर, मनुष्य, घोडा और धनादिक उतरे। उन सबको वह पागल अपना मानने लगा किन्तु वे सभी अपने-अपने आधीन हैं अत. इसमे कोई आवे कोई जावे और अनेक अवस्था रूप से परिणमन करता है इस प्रकार सबकी क्रिया अपने-अपने आधीन है । तथापि वह पागल उसे अपने आधीन मानकर खेदखिन्न होता है; उसी प्रकार यह जीव जहाँ शरीर धारण करता है वहाँ किसी अन्य स्थान से आकर पुत्र, घोडा, और धनादिक स्वय प्राप्त होते है यह जीव उन सबको अपना जानता है परन्तु ये सभी अपने-अपने आधीन होने से कोई आते हैं कोई जाते है, और अनेक अवस्था रूप से परिणमते है । क्या यह उसके आधीन है ? ये जीव के आधीन नही है तो भी यह जीव उसे अपने आधीन मानकर खेद खिन्न होता है यह सब मिथ्यादर्शन है।
प्रश्न २३-यह जीव स्वयं जिस प्रकार है उसी प्रकार अपने को नहीं मानता और किन्तु जैसा नहीं है वैसा मानता है। यह मिथ्यादर्शन है इसे जरा खोलकर समझाइये ? • उत्तर-जीव स्वय (१) अमूर्तिक प्रदेशो का पुज (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो का धारक (३) अनादिनिधन (४) वस्तु स्व है तथा (१) शरीर भूर्तिक पुद्गल द्रव्यो का पिण्ड (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो से रहित (३) नवीन ही जिसका सयोग हुआ है (४) ऐसे यह शरीरादिक पुद्गल पर हैं। इन दोनो के सयोग रूप मनुष्य तियंचादिअनेक प्रकार की अवस्थाये होती हैं। मूढ जीव इनमे अपनापना मानता है । स्व और पर का विवेक ना होने से यह मिथ्यादर्शन है।।
प्रश्न २४- मिथ्यादर्शन की कुछ पहिचान बताइए? । उत्तर-(१) नौ प्रकार के पक्षो मे अपनेपने की बुद्धि, (२)