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उतर-मिथ्यात्व परिणाम से शुद्धात्मा के अनुभव से पराडमुख अनेक तरह के कर्मों को बाँधता है। जिनसे कि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव और भाव रूपी पाँच प्रकार के ससार मे भटकता है। (१) द्रव्य परावर्तन-ऐसा कोई शरीर नही, जो इसने न धारण किया हो। (२) क्षेत्र परावर्तन-ऐसा कोई क्षेत्र नही जहाँ न उपजा हो-मरण न किया हो। (३) काल परावर्तन=ऐसा कोई काल नहीं है कि जिसमे इसने जन्म-मरण न किये हो। (४) भव परावर्तन =ऐसा कोई भव नहीं जो इसने न पाया हो। (५) भावपरावर्तन=ऐसे अशुद्धभाव नहीं है जो इसके न हुये हो। इस तरह अनन्त परावर्तन इसने किये है ऐसा बताया है।
प्रश्न १६-यदि मनुष्य भव मे जहां सच्चेदेव-गुरु-धर्म का सम्बंध मिला। वहाँ जीव अपना कल्याण ना करे, व्यर्थ के कोलाहल मे लगा रहे तो क्या होगा?
उत्तर-चारो गतियो मे घूमता हुआ निगोद मे चला जायेगा।
प्रश्त १७-मनुष्य भव में दिगम्बर धर्म धारण करने पर भी यदि व्रतादिक मे ही लाभ मानता रहा तो निगोद जाना पड़ेगा। यह कहां लिखा है ?
उत्तर-(१) जव तक लोहा गरम है तब तक उसे पीट लो-गढ लो, इस कहावत के अनुसार इसी मनुष्य भव मे जल्दी आत्म स्वरूप को समझ लो, अन्यथा थोडे ही समय मे अस काल पूरा हो जायेगा और एकन्द्रिय निगोद पर्याय प्राप्त होगी और उसमे अनन्तकाल तक रहना होगा। इसलिए इस मनुष्य भव मे ही पात्र जीवो को आत्मा का सच्चा स्वरूप समझ कर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर लेना चाहिए, क्योकि आचार्यकल्प १० टोडरमल ने कहा है कि "यदि इस अवसर मे भी तत्व निर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, प्रमाद से काल गॅवाये यातो मन्द रागादि सहित विषय-कषायो के कार्यों में ही प्रवत या व्यवहार धर्म कार्यों में प्रवत, तब अवसर चला जावेगा