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उत्तर- हाँ हो सकता है, क्योकि पर्याय मे हानि-वृद्धिपना अभूतार्थ है और स्वभाव भूतार्थ है। भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने तीसरे बोल मे यही बात बतलायी है और हानि-वृद्धि रहित स्वभाव के आश्रय का फल पच परावर्तन का अभाव बताया है ।
प्रश्न १४-पच परावर्तन का स्वरूप संक्षेप मे क्या है ?
उत्तर-(१) जीव का विकारी अवस्था मे कर्म-नोकर्म रूप पुद्गलो के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे द्रव्य परावर्तन कहते हैं। इस जीव ने लोकाकाश मे जितने पुद्गल हैं उनका अनन्तवार' ग्रहण किया और छोडा । लेकिन मैं भगवान आत्मा ह ऐसा नही समझा। अत द्रव्य परावर्तन करना पड़ा। (२) जीव की विकारी अवस्था मे आकाश के क्षेत्र के साथ होने वाले सम्बन्ध को क्षेत्र परावर्तन कहते हैं। यह जीव सम्पूर्ण लोकाकाश के क्षेत्रो मे अनन्तबार जन्मा और मरा। लेकिन मैं भगवान आत्मा हू ऐसा अनुभव नहीं किया अत क्षेत्र परावर्तन करना पड़ा। (३) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल मे ऐसा कोई काल नही, जहाँ यह जीव अनन्तबार जन्मा और मरा ना हो परन्तु मैं भगवान आत्मा हू ऐसा अनुभव नहीं किया। अतः काल परावर्तन करना पड़ा। (४) मिथ्यात्व के ससर्ग सहित नरकादि की जघन्य आयु वाले भव से लेकर नववे ग्रेवेयक तक भवो की स्थिति को इस जीव ने अनन्तबार प्राप्त की और छोडी। परन्तु, मैं भगवान आत्मा हू ऐसा अनुभव नही किया अत भव परावर्तन करना पड़ा। (५) अशुभ भाव से लेकर शुक्ललेश्या तक के भाव इस जीव ने अनन्तबार किये और छोड़े। परन्तु मैं भगवान आत्मा हू ऐसा अनुभव नही किया अत भाव परावर्तन करना पड़ा । यदि एक बार हानि-वृद्धि रहित स्वभाव की दृष्टि कर ले, तो उसी समय पच परावर्तन का अभाव हो जाता है । । प्रश्न १५-पंच परावर्तन के विषय मे परमात्म प्रकाश गाथा ७७ मैं क्या बताया है ?