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वरणीय कर्म निमित्त होता था। अब अपना ज्ञान अपनी ओर लगाने से ज्ञानावरणीय कर्म का अभाव हो गया । (३) स्वरूप की असावधानी होने से अज्ञानी जीव अपना दर्शन पर की ओर मोडता था । उसमे दर्शनावरणीय कर्म निमित्त होता था । अत्र अपना दर्शन अपनी ओर लगाने से दशनावरणीय कर्म का अभाव हो गया । ( ४ ) स्वरूप
असावधानी होने से अज्ञानी जीव अपना वीर्य पर की ओर मोडता था । उसमे अन्तराय कर्म निमित्त होता था। अब अपना वोर्य अपनी ओर लगाने से अन्तराय कर्म का अभाव हो गया । ( ५ ) पर की ओर झुकाव से अज्ञानी जीव को पर का सयोग होता था । इसमे नाम कर्म का उदय निमित्त होता था । अब पर की ओर झुकाव ना होने से, अपनी ओर झुकाव होने से नाम कर्म का अभाव हो गया (६) जहाँ शरीर हो वहाँ ऊँच-नीच कुल मे उत्पत्ति होती थी । उसमे गोत्रकर्म का उदय निमित्त होता था। अब ऊच-नीच पना से रहित ज्ञायक स्वभाव की ओर झुकाव होने से गोत्र कर्म का अभाव हो गया ( ७ ) जहाँ शरीर होता है वहाँ बाहर की अनुकूलता - प्रतिकूलता रोग निरोग आदि होते थे । उसमे वेदनीयकर्म का उदय निमित्त होता था । अब शरीर की अनुकूलता - प्रतिकूलता आदि का भाव ना होने की अपेक्षा वेदनीय कर्म का अभाव हो गया (८) अज्ञानदशा मे भव के भाव जीव न किये होने से आयु का वध होता था । अव भव के भाव का अभाव होने से आयु का अभाव हो गया ।
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इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन होते ही आठो कर्मों का अभाव हो जाता है । इसलिए अवद्धस्पृष्टादि रूप अपने एक भगवान का आश्रय लेकर शान्ति की प्राप्ति करना, भव्य जीव का परम कर्तव्य है ।
प्रश्न ८ - क्षेत्र अपेक्षा से आत्मा अनन्य, समस्त प्रकार से पूर्ण है । इसका क्या रहस्य है, दृष्टान्त देकर समझाइये ?
उत्तर - जैसे - मिट्टी का ढक्कन, घडा, भारी इत्यादि पर्यायो से अनुभव करने पर अन्यत्व भूतार्थ है- सत्यार्थ है । उसी समय