SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम प्रकरण समयसार गा० १४ तथा कलश १० का रहस्य प्रश्न १----शुद्धनय क्या है ? उत्तर-आदि अन्त पूरन-सुभाव-सयुक्त है। पर-स्वरूप पर-जोग कल्पना मुक्त है। सदा एक रस प्रगट कही है जैन मे। शुद्धनयातम वस्तु विराजे बैन मे ।। अर्थ-जीव निगोद से लगाकर सिद्ध दशा तक परिपूर्ण स्वभाव से सयुक्त है और पर द्रव्यो की कल्पना से रहित है। सदैव एक चैतन्य रस से सम्पन्न है। ऐसा शुद्धनय को अपेक्षा जिनवाणी मे कहा है। ऐसे त्रिकाली एक रूप का अनुभव होना, तब शुद्धनय का पता चलता है अपने आपका अनुभव हुए बिना शुद्धनय का ज्ञान अज्ञान है। (१) बुधजनजी कहते हैं कि "जो निगोद मे सो ही मुझ मे, सो ही मोक्ष महार, निश्चय भेद कुछ भी नाही, भेद गिनै ससार ।। (२) इसी बात को नियमसार मे कहा है कि 'जैसे सिद्ध आत्मा है। वैसे ससारी जीव है, जिससे (वे ससारी जीव सिद्धात्माओ की भांति) जन्म-जरामरण से रहित और आठ गुणो से अल कृत है ॥४७॥ जिस प्रकार लोकाग्र मे सिद्ध भगवन्त अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा है, उसी प्रकार संसार मे (सर्व) जीव जानना ॥४८॥ प्रश्न २-दसवें फलश में 'शुद्धनय को कैसा बताया है ? उत्तर-आत्म स्वभाव परभाव भिन्नमापूर्णमाद्यत विमुक्तमेकम् । विलोन संकल्प-विकल्प जालं प्रकाशयन् शुद्ध नयोऽम्युदेति ॥१०॥ अर्थ-शुद्धनय आत्म स्वभाव को प्रगट करता हआ उदय रूप हुआ है। (१) वह शुद्धनय कैसा है ? (परभाव भिन्नम्) पर द्रव्यो
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy