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ही है, क्रोध-क्रोध मे ही है, उपयोग मे निश्चय से क्रोध नही है ।
प्रश्न २६-शुभाशुभ भाव आत्मा मे नहीं है। ऐसा कहीं शास्त्रो' | आया है ?
उत्तर-{१) समयसार गा० ७१ की टीका मे "क्रोधादि के और रात्मा के निश्चय से एक वस्तुत्व नही।" तथा ऐसा भी लिखा है कि ज्ञान होते समय जैसे ज्ञान होता हुआ मालूम पड़ता है। उसी प्रकार कोवादि भी होते हुए मालूम नही पडते है।” (२) समयसार गा० ८१ से १८३ तक मे जैसे द्रव्यकर्म-नोकर्म आत्मा से भिन्न है उसी कार भावकर्म भी आत्मा से भिन्न है । क्रोधादि मे और ज्ञान मे प्रदेश रद होने से अत्यन्त भेद है, ऐसा कहा है। (३) समयसार गा० २६४ । रागादि का और आत्मा का निज-निज लक्षण जान कर अपनी
ज्ञा रूप छैनी को अपनी ओर सन्मुख करने से अलग-अलग हो गाते है। __इसलिए समयसार गा० ७१, १८१ से १८३ तक २६४ की टीका नावार्थ सहित अभ्यास करना चाहिए। इससे सिद्ध होता है 'ज्ञान अविकारी है।"
प्रश्न २७-बहुत से आदमी शुभभावो से धर्म की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यो कहते हैं ?
उत्तर--(१) शुभभावो से धर्म की प्राप्ति होती है ऐसा कोई मिथ्यावादी मानता है। क्योकि जैसे लहसुन खाने से कस्तूरी की डकार नही माती, उसी प्रकार शुभभावो से कभी भी मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती।
प्रश्न २८-शुभभावो को समयसार मे क्या क्या कहा है ?
उत्तर-(१) पुण्य भाव को धर्म का कारण मानने वाले को समय सार गा० १५४ मे 'नपुसक' कहा है। (२) गा० ७२ मे पुण्यभाव को मल, मैल, अपवित्र, घिनावना, अशुचि, जडस्वभावी, चैतन्य से अन्य स्वभाव वाला, आकुलता को उत्पन्न करने वाला और दुख का कारण