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आकाश काल के साथ, कर्म के उदयरूप अध्यवसान के साथ सम्बन्ध नहीं है। ऐसा अनादि से जिनदेव कहते हैं । क्योकि आत्मा निरन्तर जानता है इसलिए ज्ञायक ऐसा जीव ज्ञानवाला है और ज्ञान ज्ञायक से अभिन्न है ऐसा जानना चाहिए। यहाँ ज्ञान कहने से आत्मा ही समझना चाहिए। ज्ञानी ज्ञान को ही सम्यग्दृष्टि, सयम, अग पूर्वगत सूत्र, पुण्यपाप, दीक्षा मानते है । तात्पर्य यह है कि अनादि अज्ञान से होने वाली शुभाशुभ उपयोगरूप परसमय की प्रवृत्ति को दूर करके सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र मे प्रवृत्ति रूप स्वसमय को प्राप्त करके उस स्व समय परिणमन स्वरूप मोक्षमार्ग में अपने को परिणमित करके जो सम्पूर्ण विज्ञानधन स्वभाव को प्राप्त हुआ है और जिसमें कोई त्याग ग्रहण नही है। ऐसे साक्षात् समयसार स्वरूप परमार्थभूत, निश्चल रहा हुआ, शुद्ध पूर्ण आत्म द्रव्य को देखना चाहिये।
प्रश्न ३-प्रात्मा क्या करता है ? उत्तर-आत्मा ज्ञान स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम ।
परभावस्य कर्तात्मा, मोहोऽय व्यवहारिणाम् ॥६२॥ अर्थ-चेतना आत्मा चेतन मात्र परिणाम को करता है अत. आत्मा स्वय चेतना परिणाम मात्र स्वरूप है। आत्मा पर भाव का कर्ता है ऐसा मानना सो व्यवहारी जीव का मोह (अज्ञान) है।
प्रश्न ४-क्या चेतन परिणाम से भिन्न अचेतन पुद्गल परिणामरूप कर्म का जीव करता है ?
उत्तर-सर्वथा नहीं करता है। चेतन द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्म को करता है, ऐसा जानपना, ऐसा मानना मिथ्यादृष्टि जीवो का अज्ञान है। ज्ञानावरणीय कर्म का कर्ता जीव है सो कहना उपचार है। [देखो समयसार कलश २१० तथा २१४]
प्रश्न ५-आत्मा का कार्य ज्ञान है। उस ज्ञान का परसे सम्बन्ध नहीं है, इसके ऊपर से कितने बोल निकल सकते हैं ?