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( ५३ ) राग भाव ही) महावत, समिति, गुप्ति, प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित आदि सब कुछ है। (आत्म स्वरूप का आलबन, आत्म स्वरूप का आश्रय, आत्म स्वरूप के प्रति सन्मुखता, आत्म स्वरूप के प्रति झुकाव, आत्म स्वरूप का ध्यान, परम पारिणामिक भाव की भावना, मैं ध्रुव शुद्ध-आत्म द्रव्य सामान्य हूँ, ऐसी परिणति-इन सबका एक ही अर्थ है।
प्रश्न ४१-समयसार मे विषकुम्भ किसे कहा है ? उत्तरप्रतिक्रमण अरु प्रतिसरण, त्यो परिहरण, निवृत्ति धारणा। अरु शुद्धि, निन्दा, गहणा, ये अष्ट विध विष कुम्भ है ॥३०६॥ प्रश्न ४२-समयसार मे अमृतकुम्भ किसे कहा है ? उत्तरअन प्रतिक्रमण अन प्रतिसरण, अनपरिहरण अन धारणा। अनिवृत्ति, अनगो, अनिन्द, अशुद्धि-अमृत कुंभ है ॥३०७॥
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आत्मज्ञान से शाश्वत सुख
जो जाने शुद्धात्म को अशुचि देह से भिन्न, वे ज्ञाता सब शास्त्र के शाश्वत सुख मे लीन ।
[योगसार ८५] जो शुद्ध आत्मा को अशुचिरूप शरीर से भिन्न जानते हैं वे सर्वशास्त्र के ज्ञाता हैं और शाश्वत सुख में लीन होते हैं।