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________________ भावो को बनाए रखने का भाव यह भाव अप्रत्याख्यान है। समयसार कलश २८८] प्रश्न ३८-आपने वर्तमान मे जो अच्छा संयोग सम्बन्ध है और शुभभाव हैं। उन्हे आगामी फाल मे वनाए रखने के भाव का क्या निषेध किया है ? उत्तर-वर्तमान मे जैसा अच्छा सयोग सम्बन्ध है, शुभभाव है वैसे ही आगामी काल में बने रहने का तात्पर्य यह हुआ कि ससार में ही घूमता रहे और निर्वाण की प्राप्ति ना हो। अरे भाई । ऐसे भाव अनन्त समार का कारण है, इसलिए एक मात्र परम पारिणामिक रूप अपने आत्मा का आश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति ही सुख पाने का उपाय है। प्रश्न ३६-श्री भगवान कुन्दकुन्द और अमतचन्द्राचार्य ने प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमण, आलोचना-अनालोचना और प्रत्याख्यानअप्रत्याख्यान का स्वरूप फिन-फिन गावाओ और टीका मे बताया है? उत्तर-(१) समयसार गा० २८३ से २८५ तक अप्रतिक्रमणादि का स्वरूप समझाया है। (२) समयसार गा० ३०६ तथा ३०७ मे प्रतिक्रमण क्या है तथा गा० ३८३ से ३८९ तक प्रतिक्रमण-आलोचना आदि का स्वरूप स्पष्ट किया है। (३) समयसार गा० २१५ मे "ज्ञानी के त्रिकाल सम्बन्धी परिग्रह नहीं है" ऐसा बताया है। प्रश्न ४०-क्या नियमसार में प्रतिक्रमणादि का स्वरूप बताया है ? उत्तर-(१) नियमसार गा० ३८ से ५० तक किसके आश्रय से प्रतिक्रमणादि उत्पन्न होते है, यह बताया है। (२) गा० ७७ से १५८ तक की गाभाओ मे प्रतिक्रमण आदि निश्चय चारित्र का वर्णन किया है। (३) नियमसार गा० ११६ की टीका तथा फुटनोट मे बताया है कि "मात्र परम पारिणामिकभाव का-शुद्धात्म द्रव्य सामान्य काआलम्बन लेना चाहिए। उसका आलम्बन लेने वाला भाव ही (वीत
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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