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पकड कर कहा कि "यह वस्त्र तो मेरा है, पुन कहा कि मेरा ही है।" ऐसा सुनने पर उस पुरुष ने चिन्ह देखा, जाना कि मेरा चिन्ह तो मिलता नही । इससे निश्चय से यह वस्त्र मेरा नही है दूसरो का है। उसके ऐसी प्रतीति होने पर त्याग हुआ घटित होता है। वस्त्र पहिने ही है तो भी त्याग घटित होता है, क्योकि स्वामित्वपना छूट गया है। उसी प्रकार अनादि काल से जीव मिथ्यादृष्टि है । इसलिए कर्मजनित जो शरीर, दुख-सुख, रागद्वेष आदि विभाव पर्याय, उन्हे अपना ही जानता है । और उन्ही रूप प्रवर्तता है, हेय-उपादेय-ज्ञेय को नही जानता है । सत्गुरु का उपदेश सुना, हे भव्य । जितने है जो शरीर, सुख-दुख रागद्वेष, मोह जिनको तू अपना जानता है और इनमे रत हुआ है, वे तो सव ही तेरे नही है। तू तो ज्ञान-दर्शन का धारी शुद्ध चिद् प है । ऐसा निश्चय जिस काल हुआ उसी समय सकल द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म का त्याग है। याद रहे-शरीर, सुख-दुख, जैसे ही थे वैसे ही है, परिणामो से त्याग है, क्योकि स्वामित्वपना छूट गया है इसका नाम "ज्ञान ही प्रत्याख्यान है"। देखो | ज्ञान हो गया कि वे मेरा नही, पीछे क्या उनको छोडना पड़ता है ? अरे भाई | नही, परन्तु छूट ही जाता है इसलिए ज्ञान ही प्रत्याख्यान है।
प्रश्न ३०-प्रत्याख्यान के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो भेद हैं-द्रव्य प्रत्याख्यान और भाव प्रत्याख्यान । प्रश्न ३१-द्रव्य प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर-वर्तमान मे जैसा सयोग सम्बन्ध है भविष्य के लिए भी ऐसा ही सयोग सम्बन्ध बना रहे ऐसे भाव का नहीं आना। यदि ऐसे सयोग आये तो ज्ञ यरूप से आये यह द्रव्य प्रत्याख्यान है । जैसे वर्तमान मे सच्चे देव-गुरु-धर्म का सयोग सम्बन्ध है। आगामी काल में ऐसा ही बना रहे, ऐसा भाव का नही आना। परन्तु ज्ञ यरूप से ज्ञान मे आवे यह द्रव्य प्रत्याख्यान है।
प्रश्न ३२-भाव प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ?