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________________ तृतीय प्रकरण समयसार गाथा २८३ से २८५ तक तथा ३८३ से ३८६ तक का मर्म प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान स्वरूप प्रश्न १ – कुन्दकुन्द भगवान ने प्रतिक्रमण का स्वरूप नियमसार मैं क्या बताया है ? उत्तर - तारक नहीं, तिर्यंच मानव-देव पर्यय मै नहीं । कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमता में नहीं ॥ ७७ ॥ में मार्गणा के स्थान नही, गुणस्थान- जीवस्थान नहीं । कर्तान, कारयिता नही, कर्तानुमंता भी नहीं ॥ ७८ ॥ बालक नहीं मे, वृद्ध नहि, युवक तिन कारण नहीं । कर्ता न कारयिता नही, कर्तानुमंता भी नहीं ॥ ७६ ॥ मैं राग नहि, मैं द्वेष नहि नहि मोह तिन कारण नहीं । कर्ता न कारयिता नहीं, कर्तानुमता में नहीं ॥ ८० ॥ नै क्रोध नहि, मै मान नहि, माया नहि, मै लोभ नहि । कर्त्ता न कारयिता नहीं, कर्तानुमोदक में नहीं ॥ ८१ ॥ मिथ्यात्व आदिक भावकी, की जीव ने चिर भावना | सम्यक्त्व आदिक भावकी पर की कभी न प्रभावना ॥६०॥ है जीव उत्तम अर्थ, मुनि तत्रस्थ हन्ता कर्म का । अतएव है वस ध्यान हो प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ का ॥१॥ प्रश्न २ - प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर -- स्वास्थानात् यत्परस्थान, प्रमादस्य वशाद्गत 1 भयोsप्यागमनं प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ तत्र अर्थ --प्रमाद के वश होकर स्वस्थान ( अपना त्रिकाली स्वभाव ) को छोडकर, परस्थान में (मोह राग-द्व ेप भावो मे ) गया हो, वहाँ 1 से अपने स्थान मे वापस आ जाना, उसे प्रतिक्रमण कहते है ।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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