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वैमी गति' होती है। यदि ऐसे भाव के समय आयु का वन्ध हो गया तो फिर मनुष्य योनि मे जाना पडेगा। 'जहाँ वालपने मे ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तारणी रत रह्यो । अर्धमृतक समवूढापनो, कैसे रूप लखै आपनो' ऐसी दशा मे ही जीवन पूरा हो जावेगा।
प्रश्न ५१--कोई कहे अव हम क्या करें जिससे मनुष्यगति का अभाव होकर मोक्ष की प्राप्ति हो?
उत्तर-एक मात्र अपने निकाली भगवान का आश्रय ले तो प्रथम औपगमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होकर फिर श्रावक दणा, मुनिदशा, श्रेणीदगा, अरहत और सिद्धदगा की प्राप्ति हो, तो फिर मनुप्यभव की योनि का सम्बन्ध नही रहेगा। बल्कि अनन्त ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य आदिल्प शुद्ध दशा की प्राप्ति हो जावेगी। पर्याय मे सादि अनन्त सुख दशा बनी रहेगी तब मनुप्यगति मे जन्म हुआ सार्थक कहलायेगा।
प्रश्न ५२-धर्म की प्राप्ति, वृद्धि और पूर्णता के विषय मे जिनजिनवर और जिनवर वृपभो का क्या आदेश है ?
उत्तर-हे भव्य । एक मात्र निज परम पारिणामिक भाव के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन, श्रावकपना, मुनिपना, श्रेणीपना, अरहतपना और सिद्धपने की प्राप्ति होती है। किसी पर पदार्थों के आश्रय से या विकारी भावो के आश्रय से धर्म की प्राप्ति आदि कभी भी नहीं होती है। यह जिन-जिनवर और जिनवर-वृषभो का आदेश जिनवाणी मे आया है।
प्रश्न ५३-सांप आदि पर्यायो पर से चार बातें कौन-कौन सी निकालनी चाहिए?
उत्तर-(१) क्या मनुष्य भव होने पर सॉप कहला सकता है ? (२) यह जीव मनुष्य से सॉप क्यो बनता है ? (३) सॉप ना बनना पड़े-इसका क्या इलाज है ? (४) स्वभाव का आश्रय कैसे ले ?