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________________ ( ३८ ) पर जन्म-मरण के अभाव की वात चलती है । उसके बदले अन्य बात का विचार करता है, अघता है या अन्य अस्थिरता करता हैं । वह जीव उस समय वायुकाय ही है, क्योकि "जैसी मति वैसी गति" होती है। यदि अस्थिरता के भावो के समय आयु का बध हो गया तो "वायुकाय" की योनि मे जाना पडेगा। जहाँ निरन्तर अस्थिरता ही बनी रहेगी। ___ प्रश्न ३५-कोई कहे हमे वायुकाय नहीं बनना है तो हम क्या करें? उत्तर-अस्थिरता के भावो से रहित परम पारिणामिक भाव है उसकी ओर दृष्टि करे तो वायुकाय की योनि मे नहीं जाना पड़ेगा। बल्कि क्रम से पूर्ण क्षायिकपना प्रगट करके पूर्ण सुखी हो जावेगा। प्रश्न ३६-क्या मनुष्यभव होने पर 'वनस्पतिकाय' कहला सकता है ? उत्तर-जैसे-बाजार से सब्जी लाते है, आप उसे चाकू से काटते है । वह आपसे कुछ नही कहती है, उसी प्रकार मनुष्य भव पाने पर मैं दूसरो को ऐसा मारु , वह एक पग भी ना चल सके। ऐसा भाव करता है। वह उस समय वनस्पति काय ही है, क्योकि "जैसी मति वैसी गति" होती है। यदि ऐसे भावो के समय आयु का बध हो गया तो वनस्पति काय की योनि में जाना पड़ेगा। जहां एक-एक समय करके निरन्तर दुख उठाना पड़ेगा। प्रश्न ३७-कोई कहे हमे 'वनस्पतिकाय' में न जाना पड़े इसका कोई उपाय है ? उत्तर-मैं सबको मारूँ और वह एक पग भी न आगे बढ सके इससे रहित तेरी आत्मा का स्वभाव है। उसका आश्रय ले तो धनस्पतिकाय की योनि मे नही जाना पडेगा । बल्कि गुणस्थान-मार्गणा से रहित परमपद को प्राप्त करेगा। प्रश्न ६८-क्या मनुष्यभव होने पर 'दो इन्द्रियवाला जीव'
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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