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( ३५ ) निगोदिया है ही, क्योकि "जैसी मति वैसी गति" होती है और यदि ऐसे भावो के समय आयु का बन्ध हो गया है, तो निगोद मे जाना पडेगा।
प्रश्न २५-देव-गुरु-शास्त्र की विराधना क्या है, जिसका फल निगोद है ?
उत्तर-एकमात्र अपने त्रिकाल भगवान के आश्रय से ही सम्यक दर्शन, श्रावक, मुनि-श्रेणी अरहत और सिद्धदशा की प्राप्ति होती है। किसी परके या विकारीभावो के आश्रय से नही होती है । इसके बदले पर पदार्थों के आश्रय से दया दान, पूजा, मणुव्रत, महावतादि के आश्रय से धर्म की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता ही देव-गुरु-शास्त्र की विराधना है । जिसका फल परम्परा निगोद है।
प्रश्न २६-नये नये भेषो मे अपनेपने की मान्यता क्या है, जिसका फल निगोंद है ?
उत्तर-श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ४१ के अर्थ मे श्री सदासुखदासजी ने लिखा है कि "मिथ्यादृष्टि परकृत पर्याय मे अपनापना माने है। मिथ्यादृष्टि का आपा जाति मे, कुल देह मे, धन मे, राज्य मे, ऐश्वर्य मे, महल मकान-नगर कुटम्वनि मे है । याकीलार हमारी घटी, हमारी बढी, हमारा सर्वस्व पूरा हुआ, मैं नीचा हुआ, मैं ऊचा हुआ मैं मरा, मैं जिया, हमारा तिरस्कार हुआ, हमारा सर्वस्व गया, इत्यादि परवस्तु मे अपना सकल्प करि महा आर्तध्यान-रौद्रध्यान करि दुर्गति को पाय ससार परिभ्रमण कर है।" यह मान्यता नए-नए भेषो मे अपनेपने की मान्यता निगोद का कारण है । दिगम्बर धर्म धारण करने पर ऐसी मान्यता के समय वह जीव निगोदिया ही है, क्योकि "जैसी मति वैसी गति" होती है। नये-नये भेषो की मान्यता के समय यदि आयु का बन्ध हो गया। तो भाई निगोद मे जाना पडेगा, जहाँ निरन्तर उसमे पागल बना रहेगा।
प्रश्न २७-कोई कहे कि भाई ! निगोद की पर्याय तो बहुत बुरी