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प्रश्न २२-क्या मनुष्य भव होने पर "निगोदिया" कहला सकता
उत्तर-निगोद के कारण अनेक है। परन्तु उन सब को तीन मे समावेश करते है। ((१) अज्ञान मोह अन्धकार, (२) देव-गुरु-शास्त्र की विराधना, (३) नये-नये भेषो मे अपनेपने को मान्यता ।
प्रश्न २३---"अज्ञान मोह अन्धकार" क्या है, जिसका फल निगोद है ?
उत्तर-आत्मा की क्रिया ज्ञाता-दृष्टा है । इसके बदले मे मै पर जीवो को मारता हूँ, जिलाता हूँ। मैं झूठ बोलता हूँ, मैं सत्य बोलता हूँ। मैं चोरी करता हूँ, मैं चोरी नहीं करता हूँ। मैं कुशील सेवन करता हूँ, मैं ब्रह्मचर्य से रहता हूँ। मैं परिग्रह रखता हूँ, मै परिग्रह का त्याग करता हूँ ऐसी करोति क्रिया और विकारी क्रिया को अपना मानना यह अज्ञान मोह अन्धकार है। (२) मैं ज्ञायक भगवान हूँ, इसके बदले मे अपने को मनुष्य, देव, तिर्यच, नारकी आदिरूप मानना, यह अज्ञान मोह अन्धकार है। (३) आत्मा ज्ञान स्वरूप है इसके बदले मे पर पदार्थों से, ज्ञय से अपना ज्ञान मानना, यह अज्ञान मोह अन्धकार है।
प्रश्न २४-यह तीनो प्रकार का अज्ञान मोह अन्धकार है। ऐसा कहाँ किन शास्त्रो मे कहा है ?
उत्तर-चारो अनुयोगो मे कहा है। परन्तु समयसार के बन्ध अधिकार गा० २६८ से २७३ तक इसका साक्षी है। तथा १६६वे कलश मे लिखा है कि "मैं देव, मै मनुष्य, मैं तिर्यच, मैं नारकी, मैं दुखी, मैं सुखी ऐसी कर्म जनित पर्यायो मे है। आत्मबुद्धिरूप जो मग्नपना उसके द्वारा कर्म के उदय से जितनी क्रिया होती है। उसे मैं करता हूँ, मैंने किया है, ऐसा करूँगा ऐसे-ऐसे अज्ञान को लिए मानते हैं । वह जीव कैसे है ? "आत्महन" अपने को घातनशील है। जो जीव मनुष्यभव होने पर ऐसे-ऐसे भाव करता है । वह उस समय तो