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________________ ( २६ ) उत्तर- ( प्रश्न ३५ के अनुसार उत्तर दो) प्रश्न ४१ – स्वानुभूत्या चकासते; चित्स्वभावाय भावाय और सर्वभावान्तरच्छिदे पर सुखदायक दुःखदायक लगाकर तथा लाभनुकसान समझाइए ? 1 उत्तर- ( प्रश्न ३५ के अनुसार उत्तर दो ) प्रश्न ४२ – स्वानुभूत्या चकासते; चित्स्वभावाय भावाय और सर्वभावान्तरच्छिदे पर हेय उपादेय-ज्ञेय को लगाकर तथा लाभनुकसान समझाइये ? उत्तर- ( प्रश्न ३५ के अनुसार उत्तर दो) प्रश्न ४३ - स्वानुभूत्या चकासते; चित्स्वभावाय- भावाय और सर्व भावान्तरच्छिदे पर संयोग की पृथक्तादि तीन बोल लगाकर तथा लाभ नुकसान समझाइये ? उत्तर- ( प्रश्न ३५ के अनुसार उत्तर दो) प्रश्न ४४ - भगवान ने अनेक बोलो से भगवान आत्मा की महिमा बताई है। हमे अपनी महिमा क्यो नहीं आती है ? उत्तर - चारो गतियो मे घूमकर निगोद मे जाना अच्छा लगता है । इसलिए अपने भगवान आत्मा की महिमा नही आती है । प्रश्न ४५ - निज भगवान आत्मा की महिमा कैसे आवे ? उत्तर- (१) जीव अनन्त है । ( २ ) जीव से अनन्तगुणा अधिक पुद्गल द्रव्य है । (३) पुद्गल द्रव्य से अनन्तगुणा, अधिक तीन काल के समय है । (४) तीन काल के समय से अनन्तगुणा अधिक आकाश के प्रदेश हैं । (५) आकाश के प्रदेशो से अनन्तगुणा अधिक एक द्रव्य मे गुण है । (६) एक द्रव्य के गुणो से अनन्तगुणा अधिक सब द्रव्यों के गुण है । ( ७ ) सब द्रव्यो के गुणो से अनन्तगुणा अधिक सब गुणो की पर्याये हैं । (८) सब द्रव्यो की पर्यायों से अनन्तगुणा अधिक अविभाग प्रतिच्छेद हैं । विश्व मे मात्र आठ नम्बर तक ही ज्ञ ेय है । '१) अब विचारो | अपनी आत्मा मे आकाश के प्रदेशो से अनन्तगुणा अधिक
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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