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________________ ( ३०८ ) (३) भाई ! यह तो सर्वज्ञ का निर्ग्रथ मार्ग है । यदि तूने स्वानुभव के द्वारा मिथ्यात्व की ग्रन्थि नही तोडी तो निर्ग्रथ के मार्ग मे जन्म लेकर के तूने क्या किया ? भाई । ऐसा सुअवसर तुझे मिला तो अब ऐसा उद्यम कर जिससे यह जन्म-मरण की गाँठ टूटे और अल्पकाल मे मुक्ति हो जाय । (४) एक जीव बहुत शास्त्र पढा हो और बडा त्यागी होकर हजारो जीवो मे पूजा जाता हो परन्तु यदि शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व उसे न हो तो सभी जानपना मिथ्या है। दूसरा जीव छोटा सा मेढक, मछली, सर्प, सिंह या बालक दशा मे हो, शास्त्र का शब्द पढने को भी नही आता हो किन्तु यदि शुद्धात्मा के श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व से सहित है उसका सभी ज्ञान सम्यक् है और वह मोक्ष के पथ मे है । (५) एक क्षण का स्वानुभव हजारो वर्षो के शास्त्र पठन से बढ जाता है जिसको भव समुद्र से तिरना हो उसे स्वानुभव की विद्या सीखने योग्य है । (६) एक क्षण भर के स्वानुभव से ज्ञानी के जो कर्म टूटते हैं अज्ञानी के लाख उपाय करने पर भी इतने कर्म नही टूटते । सम्यक्त्व की व स्वानुभव की ऐसी कोई अचित्य महिमा है यह समझ कर हे जीव ! इसकी आराधना मे तू तत्पर हो । (७) अहो ! यह आत्म हित के लिए अत्यन्त प्रयोजनभूत स्वानुभव की उत्तम बात है । स्वानुभव की इतनी सरस वार्ता भी महान भाग्य से सुनने को मिलती है तब उस अनुभव दशा की तो क्या बात ? (८) मोक्ष मार्ग का उद्घाटन निर्विकल्प स्वानुभव से होता है । स्वानुभूति पूर्वक होने वालो सम्यग्दर्शन हो मोक्ष का दरवाजा है । इसके द्वारा ही मोक्ष मार्ग मे प्रवेश होता है इसके लिए उद्यम करना हरेक मुमुक्षु का पहला काम है और हरेक मुमुक्षु यह कर सकता है । हे जीव । एक बार आत्मा मे स्वानुभूति की लगन लगा दे ।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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