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________________ (३०७ ) नहीं करता करने परने कीव शास्त्र कभी जिन गासन की प्राप्ति नही है। [समयसार गा० १५६] (६) आत्मा रागादि के साथ जो ऐक्य को प्राप्त होता है। वह जिन शासन से बाहर है। [समयसार कलश १६४] (७) जो पर को मारने जिलाने का, सुखी-दुखी करने का अभिप्राय रखते हैं। वे अपने स्वरूप से च्युत होते हुए मोही रागी-द्वषो होकर अपना घात करते हैं वह जिन शासन से वाहर है। कलश १६६] (८) जिनेन्द्रदेव कथित व्रत, समिति, गुप्ति, शील तप करता हुआ भी जिन शासन से वाहर है। [समयसार गा० २७३] (६) जो जीव शास्त्र पढता है परन्तु आत्मा ज्ञान स्वभावी करने-धरने की खोटी मान्यता से रहित है ऐसा अनुभव नही करता वह जिन नहीं है। [समयसार गा० २७४] तात्पर्य यह है कि जो जीव जड के रूपी कार्यो मे, विकारी भावो मे अपनेपने की बुद्धि रखते हैं वह जिन शासन से बाहर चारो गतियो के पात्र हैं। प्रश्न २०५-ज्ञानियो के वचनामत क्या हैं ? । उत्तर--(१) रे जीव । तीन लोक मे सबसे उत्तम महिमावत अपनी आत्मा है उसको तू उपादेय जान । वही महा सुन्दर सुख रूप है, जगत मे सर्वोत्कृष्ट ऐसे आत्मा को तू स्वानुभव गम्य कर । तेरा आन्मा ही तुझे आनन्द रूप है, अन्य कोई वस्तु तुझे आनन्द रूप नही है । आत्मा के आनन्द का अनुभव जिसने किया है ऐसे धर्मात्मा का चित्त अन्य कही भी नही लगता। बार-बार आत्मा की ओर ही झुकता है । आत्मा का अस्तित्व जिसमें नही ऐसे पर द्रव्यो मे धर्मी का चित्त कैसे लगे ? आनन्द का समुद्र जहाँ देखा है वहाँ ही उनका चित्त लगा है। (२) स्वानुभव यह मूल चीज है । वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय करके, मति-श्रुतज्ञान को अन्तर्मुख करके स्वद्रव्य मे परिणाम को एकान करने पर सम्यग्दर्शन व स्वानुभव होता है। जब ऐसा अनुभव करे तब ही मोह की गाँठ टूटती है और तब ही जीव भगवान के मार्ग मे आता है।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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