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( ३०६ ) प्रश्न २०३-जिन शासन क्या है ?
उत्तर-(१) जो यह अबद्धस्पष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असयुक्त ऐसे पाँच भाव स्वरूप अर्थात् एक स्वरूप आत्मा की अनुभूति है। वह निश्चय से समस्त जिन शासन की अनुभूति है। [समयसार गा० १५] (२) पदार्थों का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव भलिभाँति पहिचान ले। तो भेद ज्ञान होकर स्व द्रव्य के ही आश्रय से निर्मल पर्याय का उत्पाद और मलिनता का व्यय उसका नाम जैन शासन है। [तत्वार्थ सूत्र पाँचवा अध्याय सूत्र २६, ३० का मर्म] (३) मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला जिनधर्म ही है। वह ही जिन शासन है। [भाव पाहुड गा० ८२] (४) (अ) जो प्राणियो को पच परावर्तन रूप ससार के दुखते निकाल उत्तम सुख मे पहुंचावे वह जिन शासन है। वह जिन शासन आत्मा का धर्म है। (आ) धर्म के ईश्वर भगवान तीर्थकर परमदेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को जिन शासन कहा है। (५) आत्मा रागादिक समस्त दोषो से रहित होकर आत्मा ही में रत हो जावे वह जिनशासन है। [भावपाहुड श्लोक ८५] (७) मोह क्षोभ रहित जो आत्मा का परिणाम वह जैन शासन है। [प्रवचनसार गा० ७वास्तव में अपनी आत्मा का अनुभव होने पर जैनशासन की शुरूआत, वृद्धि और पूर्णता होती है।
प्रश्न २०४-अप्रतिबुद्धता (अज्ञानता) क्या है ?
उत्तर-(१) द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म मे एकत्व बुद्धि वह अज्ञानता है। [समयसार गा० १६] (२) सर्वज्ञदेव ने अज्ञानी के व्रत तपादि को बालतप तथा बालव्रत को अज्ञान कहा है। [समयसार गा० १५२] (३) परम पदार्थरूप ज्ञानस्वरूप आत्मा का अनुभव नही है और व्रतादि मे रत है। वह अज्ञानी है। [समयसार गा० १५३] (४) शुभभावो से धर्म मानने वाले जीव नपुसक जिन शासन से बाहर है। [समयसार गा० १५४] (५) त्रिकाली आत्मा को छोडकर व्रत नियमादि में प्रवर्तते हैं। उनको