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प्रश्न १७७-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(१) क्रोध-अपने स्वरूप की अरुचि, पर द्रव्य-परभाव की रुचि । (२) मान-पर वस्तु से, शुभाशुभ भावो से अपने को बडा मानना तथा पर द्रव्य की क्रिया मैं कर सकता हू ऐसा मान्यता। (३) माया-अपने स्वरूप की आड मारना अर्थात पचमकाल है । इस समय किसी को मोक्ष की प्राप्ति तो होती नही । इसलिए वर्तमान मे शुभभाव करो और करते करते धर्म की प्राप्ति हो जावेगी, यह मायाचारी है । (४) लोभ-पुण्य की सग्रहबुद्धि या क्षयोपशम ज्ञान के उघाड की रुचि । मिथ्यादृष्टि को एक ही समय मे चारो कषाय एक साथ ही होती है, चाहे वह द्रव्यलिगी मुनि क्यो ना हो । सम्यग्दृष्टि लडाई मे खडा हो, तीर पर तीर छोड़ रहा हो, ६६ हजार स्त्रियो के वृन्द मे बैठा हो। उसे अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया, लोभ नही है।
प्रश्न १७८-अनन्तानुबधी मे 'अनन्त' से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-(१) अनन्त ससार का बध जिस भाव से होता है वह अनन्तानुबधी है। (२) मिथ्यात्व के साथ जिसका बध होता है उसे अनन्तानुबधी कहते हैं।
प्रश्न १७६-सम्यग्दृष्टि को अशुभभाव होने पर भी भव बढता और बिगड़ता क्यो नही है ?
उत्तर-अनादि ससार अवस्था मे इन चारो ही का निरन्तर उदय पाया जाता है। परम कृष्ण लेश्यारूप तीव्र कषाय हो-वहाँ भी और शुक्ललेश्यारूप मन्दकपाय हो-वहाँ भी निरन्तर चारो का ही उदय रहता है, क्योकि तीव्र मन्द की अपेक्षा अनन्तानुबधी आदि भेद नही है सम्यक्त्वादि का घात करने की अपेक्षा यह भेद है। मोक्ष-मार्ग होने पर इन चारो मे से तीन, दो, एक का उदय रहता है । फिर चारो का अभाव हो जाता है। सम्यग्दृष्टि का भव बढता