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भी नही और भव बिगडता भी नही । क्योकि सम्यग्दृष्टि के पास सदैव ज्ञायक स्वभावी अमृत की सजीवनी बूटी है। याद रक्खोवाह्य सयोग के अनुसार राग-द्वेष का माप नही है और बाह्य रागद्वेष के अनुसार अज्ञानी - ज्ञानी का माप नही है ।
प्रश्न १८० - मोह - राग-द्वेष क्या है ?
उत्तर- (१) मोह – अपने स्वरूप की असावधानी और पर मे सावधानी । (२) राग अपनी आत्मा ने अलावा पर पदार्थों मे तथा शुभभावो मे यह मेरे लिए लाभकारक है ऐसी मान्यता पूर्वक प्रीति वह राग है । ( ३ ) द्वेष . - अपनी आत्मा के अलावा पर पदार्थों मे तथा अशुभभावो मे यह मेरे लिए नुकसान कारक है ऐसी मान्यता पूर्वक अप्रीति वह द्वेष है ।
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प्रश्न १८१ - क्या मोह, राग-द्वेष के अभाव किये बिना जैन नहीं हो सकता ?
उत्तर -- नही हो सकता, क्योकि निज शुद्धात्म द्रव्य के आश्रय से मिथ्यात्व राग-द्वेषादि को जीतने वाली निर्मल परिणति जिसने प्रगट की है वही जैन है । वास्तव मे जैनत्व का प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शन से ही होता है इसलिए पात्र जीव को प्रथम अपने स्वभाव का आश्रय लेकर मोह - राग द्व ेष रहित मेरा स्वरूप है ऐसा निर्णय कर, सम्यग्दर्शन सहित स्वरूपाचरण चारित्र - प्रगट करना-अपना परम कर्तव्य है ।
प्रश्न १८२ - आराधना किसे कहते हैं और कितनी हैं ?
उत्तर - अपनी आत्मा की आराधना अर्थात् आधि-व्याधि और उपाधि से रहित आत्मा की स्वस्थता वह आराधना है और आराधना चार है - दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप ।
प्रश्न १८३ - शक्ति कौन होता है और कौन नहीं होता ?
उत्तर - जो चोरी आदि के अपराध करता है वह लोक मे घूमता
हुआ मुझे कोई चोर समझकर पकड ना ले, इस प्रकार शकित होता