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________________ La ( २६८ ) भी नही और भव बिगडता भी नही । क्योकि सम्यग्दृष्टि के पास सदैव ज्ञायक स्वभावी अमृत की सजीवनी बूटी है। याद रक्खोवाह्य सयोग के अनुसार राग-द्वेष का माप नही है और बाह्य रागद्वेष के अनुसार अज्ञानी - ज्ञानी का माप नही है । प्रश्न १८० - मोह - राग-द्वेष क्या है ? उत्तर- (१) मोह – अपने स्वरूप की असावधानी और पर मे सावधानी । (२) राग अपनी आत्मा ने अलावा पर पदार्थों मे तथा शुभभावो मे यह मेरे लिए लाभकारक है ऐसी मान्यता पूर्वक प्रीति वह राग है । ( ३ ) द्वेष . - अपनी आत्मा के अलावा पर पदार्थों मे तथा अशुभभावो मे यह मेरे लिए नुकसान कारक है ऐसी मान्यता पूर्वक अप्रीति वह द्वेष है । - प्रश्न १८१ - क्या मोह, राग-द्वेष के अभाव किये बिना जैन नहीं हो सकता ? उत्तर -- नही हो सकता, क्योकि निज शुद्धात्म द्रव्य के आश्रय से मिथ्यात्व राग-द्वेषादि को जीतने वाली निर्मल परिणति जिसने प्रगट की है वही जैन है । वास्तव मे जैनत्व का प्रारम्भ निश्चय सम्यग्दर्शन से ही होता है इसलिए पात्र जीव को प्रथम अपने स्वभाव का आश्रय लेकर मोह - राग द्व ेष रहित मेरा स्वरूप है ऐसा निर्णय कर, सम्यग्दर्शन सहित स्वरूपाचरण चारित्र - प्रगट करना-अपना परम कर्तव्य है । प्रश्न १८२ - आराधना किसे कहते हैं और कितनी हैं ? उत्तर - अपनी आत्मा की आराधना अर्थात् आधि-व्याधि और उपाधि से रहित आत्मा की स्वस्थता वह आराधना है और आराधना चार है - दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप । प्रश्न १८३ - शक्ति कौन होता है और कौन नहीं होता ? उत्तर - जो चोरी आदि के अपराध करता है वह लोक मे घूमता हुआ मुझे कोई चोर समझकर पकड ना ले, इस प्रकार शकित होता
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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