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(३) एक मालदार आदमी था। उसका रिश्तेदार वहत गरीव या और बाजार मे बोरियां ढोने का काम करता था। मालदार आदमी ने रिश्तेदार को बुलाकर कहा । देखो । तुम बाजार में बोरी डोते हो, हमे बुरा लगता है । अव तुम इस काम को छोड दो और तुम इस मकान मे आराम से रहा करो। खूब लाओ, पियो, रेडियो सुना करो और खच के लिए जो चाहे मुनीम जी से ले लिया करो। उसने कहा, बहुत अच्छा। परन्तु वहाँ पडे-पडे उसका मन ना लगे
और घर वालो की नजर बचाकर बाहर निकल जाता और बाजार मे जाकर बोरी ढोने का काम शुरू कर देता । वोरी उठाकर कहता, अरे जीव । तुझे सव मने करते है, बोरी मत उठा। तू आराम कर। इसी प्रकार रोज करता और कहता, उसी प्रकार अनादि से तीर्थकर, गणधर, आचार्य, ज्ञानी श्रावक, सम्यग्दष्टि और शास्त्र कहते है कि हे आत्मा । तेरा अत्यन्त भिन्न पर पदार्थो से, शरीर ऑख, नाक, कान, मन, वाणी से आठ कर्मों से तो किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नही है और जो तू दुखी हो रहा है एकमात्र मोह-राग-द्वेष के साथ एकत्व-बुद्धि से ही हो रहा है और एकमात्र अपने स्वभाव का आश्रय ले तो तेरा कल्याण हो। यह अज्ञानी रोज ऐसा कहता है, परन्तु अपनी खोटी एकत्वबुद्धि को छोडता नही है । इसलिए देव-गुरु-शास्त्र के अनुसार पहने पर भी अन्दर नही उतरता है। जैसा देव-गुरुशास्त्र कहते है वैसा ही निर्णय करके अन्तर्मुख होकर सावधान हो जावे तो, तुरन्त अनादि के मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति हो जावे । योगसार मे कहा है
ज्यों मन विषयो मे रमे, त्यो हो आतम लीन । शीघ्र मिले निर्वाण पद, धरै न देह नवीन ॥५०॥ व्यवहारिक धधे फसा करे न आतम ज्ञान । यही कारण जग जीव ये, पावे नहिं निर्वाण ॥५२॥