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इसलिए तत्त्व का अभ्यास विशेष रुचि पूर्वक करने वाले को ही वर्म की प्राप्ति का अवकाश है ।
प्रश्न १५८ - जीव का फल्याण क्यो नहीं होता । इसका कारण क्या है ?
उत्तर - ससार परिभ्रमण मे स्वय का दोष है । परन्तु परका दोष देखता है इसलिए इसका कल्याण नही होता है । ससार-परि-भ्रमण मे मेरा ही दोप है। ऐसा जानकर निर्दोष स्वभाव का आश्रय ले, तो तुरन्त कल्याण हो जाता है। इस बात को १३ दृष्टान्तो से -समझाते हैं ।
(१) जैसे - दस वर्ष का बच्चा आठ वर्ष के बालक को पीट रहा हो। तो लौकिक सज्जन हैरान करने वाले १० वर्ष के बच्चे को ही डाँटते है । उसी प्रकार यदि कर्म आत्मा को हैरान करते हो। तो लोकोत्तर भगवान सर्वज्ञ है । उन्हें हैरान करने वाले कर्म को उपदेश देना चाहिए । परन्तु भगवान कहते है, यह जीव अपनी भूल से ही स्वय हैरान हो रहा है। यदि यह अपनी भूल को जाने और दोष रहित स्वभाव का आश्रय ले, तो कल्याण हो जावे और यदि पर का दोप निकालता रहेगा, कभी भी कल्याण ना होगा ।
दूर
(२) जैसे - मुंह पर दाग है। शीशे मे वह दिखाई देता है । उसे करने के लिए शीशे को रगडे तो क्या दाग साफ हो जावेगा ? कभी नही; उसी प्रकार अपनी गलती के लिए कर्म से प्रार्थना करे । तो क्या वह हट जावेगा ? कभी नही । यदि मुंह के से साफ करदे, तो शीशे मे भी साफ दिखाई देगा, अपनी ओर दष्टि करे, तो कर्म स्वय भाग जावे ।
दाग को कपडे उसी प्रकार हम
(३ जैसे - एक डाकू को पचास पुलिस के पहरे मे रक्खा जाता है। ताकि वह भाग न जावे । अज्ञानी लोग पुलिस का जोर देखते है । वास्तव मे जोर डाकू का है, क्योकि एक डाकू के लिए ५० पुलिस -रखनी पडती है; उसी प्रकार एक आत्मा को बन्धन में रखने के लिए